भगवानदास मोरवाल ने ‘मोक्षवन’ में इसी विषय को उठाया
23 जनवरी 1960 में हरियाणा के नगीना ( मेवात ) में जन्मे भगवानदास मोरवाल एक प्रतिष्ठित कथाकार और अपने हर उपन्यास के लिए व्यापक शोध करने वाले साहित्यकारों में गिने जाते हैं। उन्होंने हिंदी साहित्य को काला पहाड़, बाबल तेरा देस में, रेत, नरक मसीहा, हलाला, सुर बंजारन, वंचना, शकुंतिका और ख़ानजादा जैसी कृतियां दी हैं। दस प्रतिनिधि कहानियां, महराब और अन्य कहानियां, पकी जेठ का गुलमोहर आदि उनके कहानी-संग्रह हैं। स्मृति कथा के रूप में ‘यहां कौन है तेरा’ और ‘लेखक का मन’ ख़ासा लोकप्रिय हैं, साथ ही ‘सीढ़ियां’, ‘मां और उसका देवता’, ‘लक्ष्मण-रेखा’ तथा ‘मोक्षवन’ मोरवाल के चर्चित उपन्यास हैं।
मोरवाल को मुंशी प्रेमचन्द स्मारक सारस्वत सम्मान, वनमाली कथा सम्मान, स्पन्दन कृति सम्मान, श्रवण सहाय अवार्ड जनकवि मेहरसिंह सम्मान, अन्तरराष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान, शब्द साधक ज्यूरी सम्मान, कथाक्रम सम्मान, साहित्यकार सम्मान, हिन्दी अकादमी, साहित्यिक कृति सम्मान, हिन्दी अकादमी, साहित्यिक कृति सम्मान, मद्रास का राजाजी सम्मान, डाक्टर अम्बेडकर सम्मान, पत्रकारिता के लिए प्रभादत्त मेमोरियल अवार्ड और शोभना अवार्ड से सम्मानित किया गया है।
वृंदावन को कृष्ण की क्रीड़ा-स्थली के रूप में जाना जाता है। श्रद्धा, भक्ति और सरेंडर का केंद्र न केवल हिंदुस्तान बल्कि पूरे विश्व के कृष्ण-प्रेमियों को आकर्षित करता आ रहा है। लेकिन इस धार्मिक नगरी का एक पक्ष और भी है और वह है यहां रहनेवाली विधवाएं और उनका त्रासद जीवन। देश-भर से वे स्त्रियां जिन्हें विधवा हो जाने के बाद अपने घर या ससुराल, या फिर कहीं भी ठिकाना नहीं मिलता वे वृंदावन चली आती हैं, उनकी उम्र चाहे जो हो। भगवानदास मोरवाल ने ‘मोक्षवन’ में इसी विषय को उठाया है।
गौरतलब है कि ‘मोक्षवन’ उपन्यास को लिखने के लिए मोरवाल ने वृंदावन में काफ़ी समय भी बिताया और संबंधित सामग्री की गहराई से खोज-बीन की। लेखक ने इस उपन्यास में आज के वृंदावन, वहां के मंदिरों, वहीं की परंपराओं, गलियों-मोहल्लों और देवस्थानों आदि का एक विराट दृश्य रचते हुए, वहां रहने वाली विधवाओं के दैनिक दुखों, जीवन-चर्या, वृंदावन के धार्मिक वातावरण में उनकी दृश्यता का एक प्रामाणिक और मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है।
‘मोक्षवन’ उपन्यास कोलकाता से आई युवा विधवा हरिदासी की है, जो मोक्ष की इस यात्रा में अत्यंत दुख सहन करते हुए अंतत: संसार को विदा कह देती है और भारतीय संस्कृति से जुड़े ऐसे कई प्रश्न उठाती है, जिन पर हमारा समाज अक्सर मौन धारण कर लेता है या फिर सदियों से मौन धारण किए हुए है। वृंदावन के साथ-साथ इस उपन्यास में बंगाल की लाल सौंधी मिट्टी की महक और कपास के सफ़ेद फूलों की कोमल बेचैनी भी रह-रहकर पाठक को उद्वेलित करती है।
उपन्यास अंश: मोक्षवन
हरीदासी, पागल बाबा आश्रम की दूसरी अभागियों की तरह जैसे किसी को अपने अतिरिक्त किसी के बीते हुए का नहीं पता, वैसे ही इसके बारे में भी किसी को नहीं पता कि इसका वास्तविक नाम क्या है? कौन है, कहां की रहनेवाली है? सच तो यह है कि अब तो स्वयं वह भी अपना नाम भूल चुकी है। यदि इसका कुछ नाम होगा भी, तो उसे याद करने का क्या फायदा? इसकी पहचान तो दशकों पहले उसी दिन ख़त्म हो गई थी, जब वह नबद्वीप से वृन्दावन चलकर आई थी। वह अपने उस अतीत को अब याद करना भी नहीं चाहती हैक्योंकि जब-जब वह अपने गुज़रे हुए को याद करती है, भीतर तक सिहरती चली जाती है।
हां, एक आदमी है जो इसके विगत को जानता है। वह है ब्रह्मचारी मन्दिर अर्थात राधा गोपाल मन्दिर का सेवायत जमुनादास। पिछले छह-सात दशकों में यमुना का पानी कितना बदल गया है, इसे जमुनादास और इसकी तरह दूसरी दासियां या कहिए बाइयां, सब अच्छी तरह जानती हैं। इनकी आंखों ने वृन्दावन का धार्मिक वैभव और विपन्नता, सामर्थ्य और लाचारी तथा जीवन के जिन अनेक चरणों और पक्षों को फलते-फूलते और नष्ट होते हुए देखा है, उसे ये सब अच्छी तरह जानती हैं।
पहली बार जब उसने अपने विगत की परतों को सेवायत जमुनादास के सामने धीरे-धीरे सिलसिलेवार खोलना प्रारम्भ किया था, तब थोड़ी देर के लिए जमुनादास को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। भला कैसे विश्वास हो? जिस हरिदासी का अतीत इतना वैभवशाली रहा हो, उसे सुनकर कोई भी यक़ीन नहीं करेगा। शायद इसीलिए सेवायत जमुनादास ने दंग होते हुए पूछा था,”मैया, तेरो मतलब है कि तू वा रानी राशमणि की वंशज है, जाने विधवा होते हुए ईस्ट इण्डिया कम्पनी के छक्के छुड़ा दिए थे?”
“मां दुर्गा कसम जमुना बाबू। मैं असत्य क्यों बोलूंगी?” उलटा हरिदासी ने जमुनादास से पूछते हुए आगे कहा,”तुमको पता है ईस्ट इण्डिया कम्पनी के आगे हमारी राशमोनी ने पूरी हौसला से सीना तानकर कलकत्ता में दक्षिणेश्वर काली मोन्दिर बनवाया था।” कहते हुए हरिदासी की इस बार आंखें चमक उठीं।
“रानी राशमोनी कलकत्ता के हलिसहर में केवट परिवार में पैदा हुई थी।””केवट, तेरौ मतलब है ऊ मल्लाह जिन्ने ब्रज में धीवर कहवे हैं वा जात में पैदा हुई ही?”
“हां सेवायत जी। वैसे हलिसहर का पुराना नाम कुम्हारहट्टा था। बख्तियार खिलजी के शासन में इसे हवेली शहर के रूप में जाना जाता था, जो बाद में बिगड़कर हलिसहर हो गया। रानी राशमोनी का परिवार बहुत गरीब था। जब वो पन्द्रह वर्ष की थीं तो उसकी विवाह वहीं के एक अमीर जमींदार खानदान के राजदास से हो गई थी। राशमोनी का स्वामी राजदास नए बिचारोंवाला आदमी था। उसने राशमोनी को हमेशा उसके मन के मुताबिक काम करने के लिए हौसला बढ़ाया। बल्कि राशमोनी को उसने अपने कारोबार से भी जोड़ लिया। वे दोनों मिलकर लोगों की भलाई के लिए बड़ा काम किया करते थे। कलकत्ता में उन्होंने बहुत सारी प्याऊ बनवाईं। गरीबों के लिए मांड़ रसोई बनवाईं। इतना ही नहीं जमुना बाबू, कलकत्ता के अहीरीटोला घाट और सुन्दरबाबू राजचन्द्र दास घाट, जिसे बाबूघाट कहते हैं और नीमतला घाट इनको उन दोनों ने ही बनवाया था। किन्तु हमारे कान्हा को कुछ और ही मंजूर था…” इतना कह हरिदासी एक लम्बी सांस लेते हुए जैसे किसी अन्धी सुरंग में निकल गई।
‘का हुओ मैया? कैसे चुप हे गई?” सेवायत जमुनादास ने विस्मय से पूछा।
“क्या बताऊं जमुना बाबू! अचानक एक दिन चार जवान बेटियों के पिता राजदास की मौत हो गई। उसकी मौत के बाद राशमोनी के लिए यह सबसे मुश्किल समय था। एक तो चार-चार बेटियां, ऊपर पति का कारोबार। लेकिन राशमोनी ने हौसला नहीं हारी। आप तो जानते ही हैं जमुना बाबू कि हमारे बंगाल में विधवा की क्या हालत होती है। सिर के बाल कटवा दिए जाते हैं। बिल्कुल निरामिष भोजन खाना पड़ता है। माछ-मांस सब बन्द। साज – सिंगार की तो एक विधवा सोच भी | नहीं सकती।”
“मैया, जे हालत हमारे सारे हिन्दू समाज की है। वैसे भी मनुस्मृति में कहो गयो है कि-
“कामं तु क्षपयेद्देहं पुष्पमूलफलैः शुभैः। न तु नामापिगृहीयात्पत्यौ प्रेते परस्य तु॥”
यानी पति की मृत्यु के बाद महिला सिर्फ़ फल-फूल और कन्दमूल खाकर अपनो शरीर कमजोर करे। पराए मर्द को कभी नाम न ले। इतना ही नहीं, वाहे उम्रभर धैर्य से रहनो चहिएइतनो ही ना हमारे धर्माधिकारियों ने ई इतनी बिचारी बना दी है कि सारे अमंगलों में सबसे अमंगल बना दी है। मदन पारिजात में तो कहो गयो है कि विधवा के दर्शन से कोई कार्यसिद्धि नहीं होती है। सिर्फ़ अपनी माता ए छोड़के समझदार आदमी काई विधवा से आशीर्वाद प्राप्त ना करे। विधवा ए सिर मुंड़ाके रखनो चहिए, क्योंकि केश बांधने से पति बन्धन में पड़ता है। इतना ही नहीं, विधवा के पलंग पे सोने ते मृत पति को नरक मिलता है।”
” लेकिन जमुना बाबू, हमारी राशमोनी ने इन सबकी परवाह नहीं की और विधवाओं के लिए मर्दों के बनाए बिधान को न मानते हुए, अपने पति राजदास का कारोबार स्वयं संभाल लिया। आप सोचो कि उस समय यह कितनी बड़ी बात थी। हमारे बंगाल के कुलीन ब्राह्मणों में तो यह मान्यता थी कि विधवा को जीवित ही नहीं रहने दिया जाएबल्कि सती करके फालतू की विधवाओं का निपटारा कर दिया जाता थाराममोहन राय ने जब अपनी भाभी को चिता पर जिन्दा जलते हुए देखा था, तो उसका दिल दहल उठा था। इसीलिए सती के विरोध में उसने आवाज उठाई थी।””सही कहरी है मैया जा महिला ए सिर मुंड़ाके धौरी धोती पहन बिन्दाबन चले जाना चहिए था, वानै अपने पति को बौपार संभाल लियो। ई कम बड़ी बात ना है।”” जमुना बाबू, जब राशमोनी के पति राजदास के दुश्मनों और जान-पहचानवालों ने यह बात सुनी, तब वे बहुत राजी हुए। वे राजी इसलिए नहीं हुए कि राशमोनी ने कारोबार की बागडोर अपने हाथ में ले ली थी, बल्कि इसलिए हुए कि वे अब उसके कारोबार को सरलता से हथिया लेंगे।”
“मैं कछु समझो ना मैया?”
“इसमें समझने की क्या बात है? उसके दुश्मनों ने सोचा कि एक तो स्त्री, वह भी विधवा अधिक समय तक उनके सामने नहीं टिक पाएगी। मगर अपनी होशियारी से राशमोनी ने कारोबार को पूरी तरह संभाल लिया। इस तरह उसने अपने दुश्मनों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। राशमोनी का एक नौकर था मथुरानाथ बिस्वास। उसने उसकी बड़ी सहायता की थी। बाद में इस पढ़े-लिखे जवान मथुरानाथ ने राशमोनी की तीसरी बेटी से विवाह कर ली। विवाह के बाद मथुरा बाबू लेन-देन का सारा काम संभालने लगा। वह राशमोनी का भरोसे का आदमी बन गया। लेकिऽऽऽन उसके दुश्मनों को उनके एक अच्छे काम के बहाने, उस पर चोट करने का मौका दे दिया।”
“ऐसो कौन-सो काम हो मैया, जाने अच्छे होने के बाद भी उसके दुश्मनों को मौका दे दियो?” जमुनादास ने बुझे स्वर में पूछा।
“यह कि उसने कलकत्ता के पास जब दक्षिणेश्वर मन्दिर बनवाया था, तब ब्राह्मणों ने उसका बहुत विरोध किया। उसे खूब भला-बुरा कहा। इतना ही नहीं सारे ब्राह्मणों ने यह कहकर मन्दिर का पुजारी बनने से इंकार कर दिया कि वे एक शूद्र जाति की महिला द्वारा बनाए गए मन्दिर में पुजारी नहीं बनेंगे।” कहते-कहते हरिदासी का चेहरा तमतमा उठा।
“फिर तो मन्दिर बिना पुजारी के चलो होएगो ?”
“नहीं जमुना बाबू। एक बार फिर रानी राशमोनी के दुश्मनों को मुंह की खानी पड़ी।” इस बार हरिदासी का तमतमाया चेहरा एकाएक खिल उठा,”हुआ यह कि ब्राह्मणों के इस विरोध की परवाह किए बिना हमारे रामकृष्ण परमहंस आगे आए और कहे कि मन्दिर का पुजारी मैं बनूंगा। बस, फिर क्या था सारे धूर्त ब्राह्मणों की हवा निकल गई।” फिर एक पल खामोशी साधने के बाद बोली,”बाद में रानी राशमोनी ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के साथ जुड़ गई और बाल-विवाह, बहु-विवाह, सती-प्रथा के विरोध में आवाज उठाने लगी। इस बंगाली विधवा रानी राशमोनी ने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के साथ मिलकर, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सामने बहु-विवाह के विरोध में एक मसौदा पेश किया था।”
जिस समय हरिदासी अपनी इस भूली-बिसरी नायिका रानी राशमणि की हुमकते हुए गाथा सुना रही थी, सेवायत जमुनादास मुस्कराते हुए उसे बड़े ध्यान से सुन रहा था। वह सोच रहा था कि कैसे वाराणसी या वृन्दावन में असंख्य बंगाली विधवाओं द्वारा मोक्ष की आशा में भटकने के बजाय, रानी राशमणि जो वास्तव में रानी नहीं थी, उसने सामाजिक बुराइयों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द कर रानी का दर्जा हासिल किया होगा।
पुस्तक : मोक्षवन
लेखक : भगवानदास मोरवाल
प्रकाशक : राजकमल पेपरबैक्स
मूल्य : 350 रुपए