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उदयपुर के मेनार गांव में खेली गई बारूद की होली, जानें पूरा मामला

 लठमार, पत्थर मार और कोड़ा मार होली के बारे में अकसर हर कोई जानता है लेकिन बारूद की होली की अनूठी परम्परा उदयपुर जिले के मेनार गांव में पिछले 400 सौ वर्ष से चली आ रही है. होली के दो दिन बाद यह होली इस बार मंगलवार रात को खेली गई. जिसमें बंदूक ही नहीं, बल्कि तोप से गोले छोड़े गए. गोला—बारूद से खेली जाने वाली इस होली को देखने उदयपुर जिले के नहीं, बल्कि दूरदराज के पर्यटक भी देखने पहुंचते हैं. रंग—गुलाल के बीच गोलियों की गड़गड़ाहट के साथ खेली जाने वाली होली बहुत ही उत्सव के साथ मनाई गई.

उदयपुर से करीब 45 किलोमीटर दूर मेनार गांव की होली की आरंभ मुगल काल से चली आ रही है जो यहां के लोगों के मुगलों को मुंहतोड़ उत्तर के रूप में मनाई जाती है. होली के बाद तीसरे दिन यानी कृष्ण पक्ष द्वितीया को तलवारों को खनकाते हुए बंदूक और तोप से छोड़े गोलों की गड़गड़ाहट के बीच युद्ध जैसा दृश्य जीवंत हो उठता है.
उसी परम्परा के अनुसार मंगलवार रात भी तोप ने कई बार आग उगली, बंदूकों से गोलियों के धमाके कई घंटों तक होते रहे. रण में योद्धा की भांति यहां के क्षेत्रीय लोग शौर्य का परिचय देते हुए होली खेलते रहे. क्षेत्रीय लोग ही नहीं, बल्कि इस गांव के विदेशों में रहने वाले युवा भी इस होली में भाग लेने मेनार अवश्य आते हैं. इस बार दुबई, सिंगापुर, लंदन, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में रहने वाले दर्जनों युवा बारूद की होली खेलने मेनार पहुंचे.
गांव में दिखा युद्ध जैसा नजाराः
मंगलवार रात 9 बजे बाद ग्रामीण पूर्व रजवाड़े के सैनिकों की पोशाक धारण करते हुए गांव के चौक में पहुंचते हैं. उनकी पोशाक धोती, कुर्ता के साथ कसुमल पाग होती है. जो गांव के मुख्य ओंकारेश्वर चौक पर एकत्रित होते हैं. यहां अलग—अलग पांच दल बनते हैं जो आपस में ललकारते हुए बंदूक-तलवारों को लहराते हुए खास नृत्य करते हैं. बीच—बीच में बंदूकों से गोलियां दागते रहते हैं और तोप से गोले छोेड़े जाते हैं. तोपों और बंदूकों की गर्जना इतनी तेज होती है कि मेनार से पांच से दस किलोमीटर दूर तक सुनाई देती है.
आधी रात तक चलता है होली का जश्नः
मेनार गांव में बंदूकों, पटाखों और तोपों की गर्जना के साथ होली खेलने का उत्सव आधी रात तक चलता रहता है. साथ ही पटाखों के धमाकों से ओंकारेश्वर चौक दहला हुआ रहता है. इस होली में सिर्फ़ हिन्दू परिवार के सदस्य ही नहीं, बल्कि जैन समुदाय के लोग भी भाग लेते हैं. जब यहां के क्षेत्रीय ग्रामीण ओंकारेश्वर चोराहे पर पहुंचते हैं तो जैन समाज की लोग और स्त्रियों रणबांकुरे बने लोगों का उत्साह से स्वागत करते हैं.
दीपावली जैसा माहौल भी नजर आता हैः
होली के तीसरे दिन जब बारूद की होली गांव में खेली जाती है तो ग्रामीण पूरे मेनार को रोशनी से उसी तरह सजाते हैं, जैसे दिवाली पर्व मनाया जा रहा हो. ओंकारेश्वर चौक दूधिया रोशनी से जगमगाया जाता है. गांव की हर गली रंग—बिरंगी रोशनी से लकदक रहती हैं.
दस हजार से अधिक लोग पहुंचे मेनारः
मेनार की अनूठी बारूद की होली देखने इस बार दस हजार से अधिक लोग पहुंचे. उदयपुर के अतिरिक्त राजसमंद, चित्तौड़गढ़ ही नहीं बल्कि प्रतापगढ़ से भी बड़ी संख्या में लोग होली का अनूठा रंग देखने पहुंचे. बाहर से आने वाले लोगों के गाड़ी पार्किंग की प्रबंध भी ग्रामीणों ने की और मुख्य हाईवे से लेकर डाक बंगले तक सड़क के दोनों ओर वाहनों की पार्किंग कराई गई.

400 वर्षों से चली आ रही है यह परंपराः
यहां के बुजुर्ग बताते हैं मेनार में बारूद की होली खेलने की परम्परा पिछले चार सौ वर्षों से चली आ रही है. जब मुगलों की सेना मेवाड़ पर धावा करते हुए यहां तक पहुंची तो मेनार के रणबांकुरों ने ऐसा युद्ध किया कि मुगल सेना के पांव उखड़ गए और उसे पीछे हटना पड़ा. जिसके बाद मुगल सेना ने मेवाड़ की ओर कभी आंख उठाकर नहीं देखा. उसी परिदृश्य की याद को ताजा करने के लिए यहां बारूद की होली खेली जाती रही है.
उसी परिदृश्य की तर्ज पर मेनार के मुख्य चौक पर अलग—अलग रास्तों से सेना की वेशभूषा में क्षेत्रीय ग्रामीण हाथों में तलवार और बंदूक पुलिस स्टेशन आते हैं. इतिहास में उल्लेख है कि महाराणा अमर सिंह के साम्राज्य के दौरान मेनारिया ब्राह्मणों ने मुगलों की छावनी पर धावा कर दिया था. जब विजय की यह समाचार मेनार वासियों को वल्लभनगर छावनी पर मिली तो गांव के लोग ओंकारेश्वर चबूतरे पर एकत्रित हुए और उत्सव की योजना बनाई गई.

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