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Maidaan Review: जोश-जज्बे और इमोशन्स से भरी है अजय देवगन की ‘मैदान’

फुटबॉल दुनिया का सबसे लोकप्रिय खेल माना जाता है, लेकिन इस खेल में विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाने के लिए हिंदुस्तान को अभी लम्बा संघर्ष करना है, लेकिन एक समय था जब हिंदुस्तान विश्व में फुटबॉल में भी अपनी खास पहचान बनाने में सफल रहा था यह बात है 1952 से 1962 की, जिसे भारतीय फुटबॉल का स्वर्णिम काल भी बोला जाता है इस कालखंड को कोच सैयद अब्दुल रहीम ने अपने हौसले, जोश और जुनून से लिखा था ये त्रासदी है कि उनके बारे में हम नहीं जानते थे ,इसके लिए फिल्म मैदान की पूरी टीम शुभकामना की पात्र है जो इस गुमनाम नायक को फिर से जीवंत कर दिया जिसकी सहयोग की कहानी सभी को जाननी चाहिए प्रेरणादायी यह कहानी सिनेमा के लिहाज से भी एक अच्छी फिल्म बनी हैं स्पोर्ट्स के साथ – साथ इमोशन का अच्छा बैलेंस बनाया गया है जो आपके चेहरे पर मुस्कान बिखेरने के साथ इमोशनल भी कर जाता है अजय देवगन की कमाल की अदाकारी इस फिल्म को मस्ट वॉच फिल्म की श्रेणी में भी शामिल कर जाती है

फुटबॉल के स्वर्णिम काल की इस कहानी की आरंभ 1952 के ओलंपिक में हिंदुस्तान की हार से होती है जहां भारतीय खिलाड़ी नंगे पैर तरराष्ट्रीय मैच खेल रहे थे और विरोधी टीम के सामने टिक नहीं पाये हार का उत्तरदायी कोच सैयद अब्दुल रहीम ( अजय देवगन) को ठहराया जाता है फुटबॉल फेडरेशन की मीटिंग में सैयद कहता है कि यदि हार की ज़िम्मेदारी उसकी है तो खिलाड़ियों को चुनने की जिम्मेदारी भी उसकी पूरी हो वह एक बेहतरीन फुटबॉल टीम बनाने का प्रस्ताव रखता है और उसके लिए लिए वह समय मांगता है जिसके बाद प्रारम्भ होती है हिंदुस्तान के कोने – कोने से खिलाड़ियों को खोजने की जर्नी ,जिसमें सड़क से भी एक फुटबॉल के स्टार को चुना जाता है उम्दा कोच और बेहतरीन खिलाड़ियों के बावजूद भारतीय फुटबॉल टीम की राह सरल नहीं है क्योंकि फुटबॉल फेडरेशन के शुभांकर और उस समय के टॉप स्पोर्ट्स जर्नलिस्ट रॉय चौधरी ( गजराज राव) सैयद को पसंद नहीं करते हैं प्रांतवाद और धर्म की पट्टी ने उन्हें अंधा कर दिया है उन्हें नहीं दिख रहा है कि सैयद का सपना दुनिया के सामने फुटबॉल के मैदान में तिरंगे को फहराने का है वे इसकी राह में रोड़ा बनाते जाते हैं ,लेकिन सैयद हर रोड़े को पारकर अपने सपने तक पहुंचता है किस तरह से सैयद और उनकी टीम एशियन गेम में हिंदुस्तान का पहला फुटबॉल स्वर्ण पदक जीतती है,जो कारनामा आज तक भारतीय फुटबॉल टीम नहीं यह फिल्म उसी की जर्नी है फिल्म में हम सैयद की निजी जीवन में आनेवाले मुसीबतों से भी हम रूबरू होते हैं

फ़िल्म कहां हुई हिट कहां रह गयी मिस

सैयद अब्दुल रहीम की यह प्रेरणादायी कहानी को पर्दे पर साकार करने के लिए इस फिल्म की पूरी टीम की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है फिल्म की स्क्रीनप्ले की बात करें तो फर्स्ट हाफ इंगेजिंग है लेकिन थोड़ा स्लो रह गया है सेकेंड हाफ में कहानी रफ्तार पकड़ती है और फिर पर्दे पर जादू बिखेर देती है आपको गर्व होता है कि एक वक़्त में हिंदुस्तान को फुटबॉल में एशिया का ब्राजील बोला गया था फिल्म की कहानी में स्पोर्ट्स के साथ – साथ इमोशन का भी अच्छा बैलेंस बनाया गया है फिल्म में खेलों से जुड़ी पॉलिटिक्स को भी दिखाया गया है कि कई बार खिलाड़ियों के चयन पर खेल से अधिक प्रांतवाद हावी हो जाता है यह फिल्म गंगा जमुनी तहजीब को बढ़ावा भी देती है जो फिल्म का अच्छा पहलू है रीयलिस्टिक कहानी वाली इस फिल्म का ट्रीटमेंट भी रियलिस्टिक रखा गया है फिल्म में जब विद्रोही लोग टीम की बस को आ कर घेर लेते हैं, आपको एक पल को लगता है कि कहीं अजय का भूमिका इससे भी तो टीम को नहीं बचाएगा लेकिन मेकर्स ने जबरदस्ती का हीरोज्म नहीं जोड़ा है देशभक्ति की कहानी होने के बावजूद संवाद में भारी – भरकम शब्दों को नहीं रखा गया है संवाद अच्छे बन पड़े हैं फुटबॉल ही ऐसा खेल है, जहां किस्मत हाथ से पैर से लिखी जाती है

फिल्म मैदान को बनने में काफी समय लगा है और अच्छी बात है कि फ़िल्म के लुक पर इत्मीनान से काम किया है 1952 से 1962 के दौर की छाप को गहरा करने के लिए नीले और भूरे रंग को कलर पैलेट में दिखाया गया है फुटबॉल के खेल की मैदान में हुई शूटिंग के शॉट आपको आंखों को झपकाने का मौकी नहीं देते हैं ऐसा लगेगा कि आप वास्तविक मैच देख रहे हैं फिल्म में एशियन गेम्स में स्वर्ण पदक लाने वाली विजेता टीम के खिलाडियों को भी आखिर में दिखाया गया है, जो आपको एक अलग इमोशन से भर देता है खामियों की बात करें तो कई बार फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक लाउड रह गया है ,जिसकी वजह से कई बार संवाद ठीक से सुनायी नहीं देता है फिल्म का गीत संगीत भी औसत रह गया है स्पोर्ट्स ड्रामा फिल्म में जोश और जूनून से भरे गानों की आवश्यकता होती है यहां वह मिस रह गया है

अजय देवगन रहे मैन ऑफ द मैच

किरदारों में रच बस जाना अजय देवगन की विशेषता है, यदि भूमिका रियल लाइफ हो तो पर्दे पर उनका एक्टिंग और निखर कर आता है एक बार फिर फिल्म मैदान में उन्होंने यह बात साबित की है सैयद अब्दुल रहीम के भूमिका में उन्होंने जान डाल दी है भूमिका का जुनून हो ,दर्द हो या फिर उसकी छटपटाहट उन्होंने हर रेट को अपनी आंखों, संवाद और अपनी बॉडी लैंग्वेज से जिया है फुटबॉल की इस कहानी में 11 खिलाड़ियों की अपनी अहमियत है जिस तरह से कलाकारों को चुना गया है वह रियल लाइफ के प्लेयर्स से मेल खाते हैं यह बात इस फिल्म को और खास बनाती है हर प्लेयर पर्दे पर एक मंझे हुए फुटबॉल खिलाड़ी की तरह ही नजर आया है प्रियामणि अपनी किरदार में छाप छोड़ती हैं, तो गजराज राव की प्रशंसा भी बनती हैं फिल्म की कास्टिंग और एक्टिंग पहलू इस फिल्म की अहम् यूएसपी है

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