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कांग्रेस समेत ये राजनीतिक दल अपने अस्तित्व को बचाने के लिए उतर रहे हैं मैदान में…

देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस पार्टी समेत कई विपक्षी दलों के लिए इस बार का आम चुनाव खास इसलिए है क्योंकि इसके रिज़ल्ट इन दलों के अस्तित्व के बचे रहने या समाप्त होने का भी निर्धारण करने वाले हैं. जहां तक कांग्रेस पार्टी की बात है तो भले वहां गांधी परिवार से अलग अध्यक्ष आ गया हो लेकिन पार्टी अब भी पूरी तरह गांधी परिवार के असर में काम कर रही है इसलिए अनेक कोशिश करने के बावजूद आगे नहीं बढ़ पा रही है. 2014 से कांग्रेस पार्टी की हार का और नेताओं के पार्टी छोड़ने का जो सिलसिला प्रारम्भ हुआ है वह अनवरत जारी है.

देखा जाये तो पिछले दो लोकसभा चुनाव में हार के बाद कांग्रेस पार्टी एक बार फिर बहुत कठिन माने जा रहे चुनाव में उतर रही है. इस चुनाव में उसके सामने अस्तित्व बचाने की कड़ी चुनौती है क्योंकि एक बार उसका मुकाबला एक बार फिर पीएम नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली ताकतवर बीजेपी से है. कुछ ऐसी ही चुनौती आम आदमी पार्टी, वाम दलों और कई अन्य क्षेत्रीय दलों के लिए भी है. देखा जाये तो कांग्रेस पार्टी का आजादी से पहले से लेकर पिछले दशक तक राष्ट्रीय सियासी परिदृश्य में बड़ा दबदबा था, लेकिन कुछ सालों से वह लगातार सिमटती जा रही है. अब वह सिर्फ़ तीन राज्यों- कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और तेलंगाना में अपने दम पर सत्ता में है. यही नहीं, इस पर भी एक बड़ा सवालिया निशान है कि क्या वह ‘इंडिया’ गठबंधन की प्रतिनिधित्व का दावा भी कर सकती है.

देखा जाये तो केंद्र में नरेंद्र मोदी के रहते पिछला दशक 138 वर्ष पुरानी पार्टी के लिए बहुत कठिन भरा रहा. वह लोकसभा में विपक्ष के नेता के पद के लिए जरूरी सीटें भी हासिल करने में विफल रही. कांग्रेस पार्टी नेता पार्टी की गौरवशाली विरासत पर भरोसा करते हुए पतन के रुकने और फिर से खड़े होने की आशा कर रहे हैं, हालांकि कई चुनौतियां उनके सामने खड़ी हैं. कांग्रेस पार्टी पार्टी ने पिछले चुनाव में लड़ी गई 421 सीटों में से सिर्फ़ 52 सीटें हासिल कीं, जिससे 2014 की तुलना में उसकी संख्या में थोड़ा सुधार हुआ जब उसने लड़ी गई 464 सीटों में से 44 सीटें हासिल की थीं. 2014 में 178 के मुकाबले 2019 में 148 कांग्रेस पार्टी उम्मीदवारों ने अपनी जमानत गंवा दी.

हम आपको बता दें कि साल 1984 में कांग्रेस पार्टी के लिए शिखर तब आया जब उसने रिकॉर्ड 404 सीटें जीतीं. हालांकि उस जीत में तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी की मर्डर से उपजी सहानुभूति की लहर एक बड़ा कारक रही थी. इसके बाद 1989 के आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी को 197 सीट, 1991 में 232, 1996 में 140, 1998 में 141, 1999 में 114, 2004 में 145 और 2009 में 206 सीटें मिलीं थीं. इसके बाद 2014 में कांग्रेस पार्टी को 44 और 2019 के चुनाव में 52 सीटें मिलीं. साल 2019 और 2014 के लोकसभा चुनावों में पार्टी के लिए मामूली आशा की किरण यह थी कि उसने अपना मत फीसदी लगभग 19 फीसदी पर बनाए रखा, जिसे अब वह आगे बढ़ाने की आशा कर रही है. 2009 में, जब मनमोहन सिंह सत्ता में लौटे थे, तो पार्टी को 28.55 फीसदी मत मिले थे.

कांग्रेस में बिखराव का ऐसा सिलसिला प्रारम्भ हुआ है जो थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. खास बात यह है कि इस बिखराव को रोकने के कोशिश भी नहीं किये जा रहे हैं. राहुल गांधी ने अपनी हिंदुस्तान जोड़ो इन्साफ यात्रा जिस दिन प्रारम्भ की थी उस दिन से कांग्रेस पार्टी छोड़ने वाले नेताओं की संख्या में लगातार वृद्धि होती रही जोकि यात्रा के समाप्ति के बाद भी जारी है. शायद कांग्रेस पार्टी इस बात को समझ चुकी है कि रिज़ल्ट क्या रहने वाले हैं इसलिए चुनाव प्रचार की औपचारिक आरंभ से पहले ही ईवीएम पर निशाना साधना प्रारम्भ कर दिया है.

वहीं विपक्ष के अन्य दलों की बात करें तो दिल्ली और पंजाब में सत्तारुढ़ ‘आप’ ने करीब एक दशक में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल कर लिया है. वह आनें वाले लोकसभा चुनावों में अपने सियासी पदचिह्न का विस्तार करने की प्रयास करेगी. हम आपको बता दें कि आम आदमी पार्टी भी ‘इंडिया’ गठबंधन की एक प्रमुख घटक है. पार्टी बड़ी परीक्षा के लिए तैयार है और उसे अपने नेताओं के विरुद्ध करप्शन के आरोपों और आबकारी नीति भ्रष्टाचार मुद्दे में अपने प्रमुख अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के खतरे जैसी चुनौतियों से भी निपटना है. आप पंजाब (13 सीटें), दिल्ली (4), असम (2), गुजरात (2) और हरियाणा (एक सीट) में लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ रही है. 17वीं लोकसभा में सिर्फ़ पांच सांसदों तक सीमित रही आप विपक्षी ‘इंडिया’ गठबंधन का हिस्सा है. 2019 के चुनावों में अब तक की सबसे कम संख्या हासिल करने के बाद इस आम चुनाव में उनके लिए करो या मरो की स्थिति है.

दूसरी ओर, वामपंथी दलों के लिए भी यह लोकसभा चुनाव अस्तित्व बचाने की चुनौती वाला है. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी और ऑल इण्डिया फॉरवर्ड ब्लॉक ने पिछले कुछ चुनावों में अपने प्रदर्शन में लगातार गिरावट देखी है. वामपंथी दलों में भाकपा अपना राष्ट्रीय दर्जा खो चुकी है और माकपा राष्ट्रीय दल है, लेकिन उसका आधार भी सिकुड़ता जा रहा है. देखा जाये यह लोकसभा चुनाव वाम दलों के भविष्य के लिए भी निर्णायक रहने वाला है.

वहीं राष्ट्रीय जनता दल, हिंदुस्तान देश समिति, एआईयूडीएफ, वाईएसआर कांग्रेस, तेलुगू देशम पार्टी, भारतीय नेशनल लोकदल, जननायक जनता पार्टी, पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस, झारखंड मुक्ति मोर्चा, शिवसेना और एनसीपी के दोनों गुट, एमएनएफ, जेडपीएम, शिरोमणि अकाली दल, अन्नाद्रमुक, बहुजन समाज पार्टी, सपा और तृणमूल कांग्रेस पार्टी के लिए भी यह चुनाव करो या मरो जैसी स्थिति वाले हैं. देखना होगा कि लोकसभा चुनावों में इन क्षेत्रीय दलों के हाथ कितनी कामयाबी लगती है.

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