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16 वर्ष की उम्र में ही श्रीरामानुजम ने सभी वेदों और शास्त्रों का अर्जित कर लिया था ज्ञान

Ramanujacharya Jayanti 2024: (1017-1137 ई) : हिन्दू मान्यताओं के मुताबिक उनका जन्म सन् 1017 में श्री पेरामबुदुर (तमिलनाडु) के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम केशव भट्ट था. जब उनकी हालत बहुत छोटी थी, तभी उनके पिता का देहावसान हो गया. बचपन में उन्होंने कांची में यादव प्रकाश गुरु से वेदों की शिक्षा ली.

 

1. 16 साल की उम्र में ही श्रीरामानुजम ने सभी वेदों और शास्त्रों का ज्ञान अर्जित कर लिया और 17 साल की उम्र में उनका शादी संपन्न हो गया. उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्याग कर श्रीरंगम के यदिराज संन्यासी से संन्यास की दीक्षा ली. रामानुजाचार्य आलवन्दार यामुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे. गुरु की इच्छानुसार रामानुज ने उनसे 3 काम करने का संकल्प लिया था. पहला- ब्रह्मसूत्र, दूसरा- विष्णु सहस्रनाम और तीसरा- दिव्य प्रबंधनम की टीका लिखना.

2. हिन्दू मान्यता के मुताबिक श्री रामानुजम का जीवन काल लगभग 120 साल लंबा था. रामानुजम ने लगभग 9 पुस्तकें लिखी हैं. उन्हें नवरत्न बोला जाता है. उनकी सबसे मशहूर रचनाओं में से एक ‘श्रीभाष्य’ है. जो पूर्णरूप से ब्रह्मसूत्र पर आधारित है. इसके अतिरिक्त वैकुंठ गद्यम, वेदांत सार, वेदार्थ संग्रह, श्रीरंग गद्यम, गीता भाष्य, निथ्य ग्रंथम, वेदांत दीप, आदि उनकी मशहूर रचनाएं हैं.

3. श्रीरामानुजाचार्य बड़े ही विद्वान और उदार थे. वे चरित्रबल और भक्ति में अद्वितीय थे. उन्हें योग सिद्धियां भी प्राप्त थीं. वैष्णव आचार्यों में प्रमुख रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में ही रामानंद हुए थे जिनके शिष्य कबीर और सूरदास थे.

4. रामानुज ने वेदांत दर्शन पर आधारित अपना नया दर्शन विशिष्ट द्वैत वेदान्त गढ़ा था. रामानुजाचार्य ने वेदांत के अतिरिक्त सातवीं-दसवीं शताब्दी के रहस्यवादी एवं भक्तिमार्गी अलवार संतों से भक्ति के दर्शन को तथा दक्षिण के पंचरात्र परम्परा को अपने विचार का आधार बनाया. रामानुजाचार्य के मुताबिक भक्ति का अर्थ पूजा-पाठ या किर्तन-भजन नहीं बल्कि ध्यान करना, ईश्वर की प्रार्थना करना है. सामाजिक परिप्रेक्ष्य से रामानुजाचार्य ने भक्ति को जाति एवं वर्ग से पृथक तथा सभी के लिए संभव माना है.

5. रामानुज श्रीयामुनाचार्य की शिष्य-परम्परा में थे. जब श्रीयामुनाचार्य की मौत सन्निकट थी, तब उन्होंने अपने शिष्य के द्वारा श्रीरामानुजाचार्य को अपने पास बुलवाया, किन्तु इनके पहुंचने के पूर्व ही श्रीयामुनाचार्य की मौत हो गयी. वहां पहुंचने पर श्रीरामानुजाचार्य ने देखा कि श्रीयामुनाचार्य की तीन अंगुलियां मुड़ी हुई थीं.

रामानुजाचार्य समझ गए श्रीयामुनाचार्य इनके माध्यम से ‘ब्रह्मसूत्र’, ‘विष्णुसहस्त्रनाम’ और अलवन्दारों के ‘दिव्य प्रबन्धम्’ की टीका करवाना चाहते हैं. इन्होंने श्रीयामुनाचार्य के मृत शरीर को प्रणाम किया और उनके इस आखिरी ख़्वाहिश को पूर्ण किया. मैसूर के श्रीरंगम से चलकर रामानुज शालग्राम नामक जगह पर रहने लगे. रामानुज ने उस क्षेत्र में 12 साल तक वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार किया. फिर उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिए पूरे राष्ट्र का भ्रमण किया. आज के समय में भी रामानुजम की उपलब्धियां और उपदेश उपयोगी हैं.श्रीरामानुजाचार्य सन् 1137 ई में ब्रह्मलीन हो गए.

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