झारखंड में यहां विराजमान हैं मां झालखंडी
जहां आस्था की बात होती है वहां पौराणिक मान्यताएं और कथाएं उभरकर सामने आते है।झारखंड की राजधानी रांची से 165 किलोमीटर दूर पलामू जिले में आस्था और मान्यता का केंद्र है।इस मंदिर का इतिहास 2000 वर्ष पुराना है। माता झालखंडी के नाम से मशहूर मंदिर पलामू जिला मुख्यालय मेदिनीनगर से 30 किलोमीटर दूर तरहसी प्रखंड के मझिगांवा गांव में स्थित है।जहां हर साल रामनवमी के अवसर पर भव्य मेले का आयोजन होता है।इस मेले में लाखों लोग उमड़ते है।
मंदिर के प्रधान पुजारी पंडित कृष्ण मुरारी मिश्रा ने बोला कि इस मंदिर का इतिहास दो हजार वर्ष पुराना है।वहीं मंदिर परिसर में 20 वर्षो से रामनवमी के अवसर पर मेले का आयोजन होता है। इस दौरान आस पास के 20 गांव से स्त्री पुरुष आते है।भजन कीर्तन के साथ रामनवमी जुलूस निकाला जाता है ।इस दौरान शस्त्र प्रदर्शन भी होता है।मेले में मीना बाजार में हर तरह के समान मिलते है।इसके साथ साथ खाने पीने के दर्जनों स्टाल लगते है।दूर दूर से श्रद्धालु मंदिर परिसर में पूजा अर्चना करने आते है।
जमीन से प्रकट हुई है मां झालखंडी
आगे कहा कि मंदिर का इतिहास दो हजार साल पुराना है। यह हिंदुस्तान का पहला ऐसा मंदिर है। यहां प्राण प्रतिष्ठा नहीं किया गया है। मां झालखंडी जमीन के अंदर से प्रकट हुई है। राजा मेदिनिराय के प्रधान पुजारी थे रामदत्त मिश्र जिनके स्वप्न में माता झालखंडी आई थी। उन्होंने कहा कि किसी जमाने में यहां घनघोर जंगल हुआ करता था। जंगल के बीच चट्टान से स्वयं ब स्वयं खून की धारा निकलता देख लोग आश्चर्य में हो गए। उस दौरान राजा मेदिनिराय अपने सिपाहियों के साथ यहां शिकार करने आए थे। हालाकि सामान्य समझकर वापस लौट गए। जिसके बाद माता उनके स्वप्न में आई।तब जाकर यहां साफ सफाई कराकर पूजा अर्चना प्रारम्भ की गई। जमीन के अंदर से प्रकट वन देवी मां को स्थापना कराया गया। जो पूरी तरह खून से लथपथ थी।इस मंदिर का अबतक 3 बार जिर्णोद्वारा कराया जा चुका है। यह मंदिर सुबह 6 बजे से 1 बजे तक और 2:30 बजे से 7 बजे तक खुला रहता है। मां पर चुनरी, नारियल, सिंगार के समान और सभी तरह के पूजा के सामग्री चढ़ाए जाते है। यहां झारखंड के अतिरिक्त बिहार उत्तरप्रदेश से भी श्रद्धालु आते है।इस मंदिर में रोजाना मां को स्नान कराकर नए चुनरी पहनाई जाती है।जिसके बाद फूल, फल, मेवा मिश्री, नारियल का भोग लगाकर पूजा पाठ किया जाता है।
बली देने की है पुरानी प्रथा
उन्होंने कहा कि श्रदालुओं द्वारा मुराद पूरी होने पर पठिया का बली दिया जाता है। जो एक रंग होता है।इस मंदिर में भादो, सावन और कार्तिक माह में बली नहीं दी जाती है। वहीं मां से सच्चे मन से मुराद मांगने से इच्छा पूर्ण हो जाती है। यहां विवाह शादी के लिए शादी मंडप भी बनाया गया है। यहां नए जोड़ो का नि: शुल्क शादी कराया जाता है।किसी जमाने में काढ़ा का बली दिया जाता था।