उत्तर प्रदेश

बेगम हजरत महल की सुंदरता और गुणों से नवाब उन पर हुए फिदा

लखनऊ हिंदुस्तान की आजादी के लिए पहला स्वतंत्रता संग्राम वर्ष 1857 में हुआ इसमें स्त्रियों और मर्दों सभी ने अपनी किरदार निभाई है, उन्हीं में से एक वीरांगना बेगम हजरत महल जिनका जन्म मजदूर परिवार में हुआ था, इसके बावजूद भी उन्होंने अपने बेटे को अवध की गद्दी पर बैठाया इसके बाद अंग्रजों से लड़कर एक समय के लिए लखनऊ को आजाद कराने में सफल हुईं

बेगम का वास्तविक नाम मुहम्मदी था मुहम्मदी के बारे में कहा जाता है कि उनका जन्म एक अफ्रीकी और भारतीय के मिश्रित परिवार में हुआ था उस दौर में कुछ व्यापारी अफ्रीकी गुलामों को हिंदुस्तान में बेचने लाया करते थे बाद में ऐसे गुलाम भारतीय समाज में घुल मिल गए यहां तक कि अवध के नवाबों ने जिस्मानी तौर पर शक्तिशाली अफ्रीकी स्त्रियों की एक पलटन – हब्शिया पलटन के तौर पर बना रखी थी खैर, मुहम्मदी को छोटी सी उम्र में काम-काज करने के लिए सेविका के तौर पर शाही हरम को बेच दिया गया उस दौर में नवाब वाजिद अलीशाह ने सुंदर युवतियों को संगीत और रंगमंच की तालीम देने के लिए परीखाना बना रखा था मोहम्मदी भी इस परीखाना में शामिल कर ली गईं परीखाना की युवतियां प्रशिक्षण प्राप्त कर नाच गाने से मनोरंजन करने वाली तवायफें बनतीं ये ही वाजिद अलीशाह के कथक और दूसरे संगीतमय कार्यों में शामिल होती थीं यहां रखी गई सभी युवतियों के नाम में ‘परी’ शब्द जोड़ दिया जाता इस तरह से मुहम्मदी अब महक परी बन गईं

‘महक परी से बेग़म हजरत महल’
बेगम हजरत महल की सुंदरता और गुणों से नवाब उन पर फिदा हो गए और उन्होंने महक परी से करार की तरह किया जाने वाला निकाह-मुताह कर लिया वाजिद अली शाह ऐसा शादी बहुत सी महिलाओं से करते थे जिनका बेटा पैदा हो जाता वे बेगम बना ली जातीं वे महल समेत अनेक सुविधाओं की हकदार होती थीं 1845 में बेटा पैदा हो जाने पर उन्हें आधिकारिक पत्नी का ओहदा देने के साथ नया नाम भी मिला- ‘बेगम हजरत महल’ नवाब की चहेती होने के कारण उनका असर भी अधिक ही था

पांच वर्ष बाद ही हो गया तलाक
हजरत महल की खुशियों के दिन लंबे नहीं रहे प्रसिद्ध लेखक विक्रम सम्पत ने अपनी पुस्तक ‘शौर्यगाथाएं – भारतीय इतिहास के नायक’ में लिखा है कि नवाब की मां उनसे खफा रहती थीं उन्हें किसी गुलाम की बेटी का रानी बनना पसंद नहीं था बेटा पैदा होने के पांच वर्ष बाद ही नवाब ने उन्हें तलाक दे दिया अब उन्हें बेटे के साथ अकेले रहना पड़ा

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अंग्रेजों के अधीन हुआ अवध
अंग्रेजों ने फरवरी 1856 में अवध को अपने अधीन लेने का घोषणा कर दिया और उसी वर्ष मार्च में वाजिद अली शाह को अरैस्ट कर कलकत्ता भेज दिया तालुकेदारों से उनके अधिकार छीन लिए गए थे लिहाजा उनमें नाराजगी थी यही दौर था कि जगह-जगह अंग्रेजों के विरोध में क्रांति की चिंगारी सुलगने लगी थी सिपाही भी नयी बंदूकों में चर्बी वाले कारतूसों के इस्तेमाल से नाराज थे सशस्त्र उपद्रव करने वाले लोकप्रिय मंगल पांडे को अप्रैल 57 में फांसी दे दी गई

 

बेटे को अवध के तख्त पर बैठाया
फिर क्या था, 30 मई 1857 को उपद्रवियों ने बेगम हजरत महल की अगुआई में लखनऊ पर कब्जा कर लिया अंग्रेजों ने आलमबाग में शरण ली कमिश्नर हेनरी ने किसी तरह उनकी हिफाजत की इधर अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंकने वाले क्रांतिकारियों ने बेगम हजरत महल के बेटे बिरजिस कद्र को कैसरबाग महल में उसके पुश्तैनी तख्त पर बिठा कर अवध का शासक घोषित कर दिया बेगम हजरत महल अपने छोटे से बेटे की संरक्षक घोषित की गईं

हजरत महल ने हिंदू-मुस्लिम सभी को एकजुट कर लड़ी अंग्रेजों से लड़ाई
गौरतलब है कि ग्वालियर से आए फकीर अहमदुल्ला शाह ने लखनऊ में अंग्रेजों के सामने आतंक छेड़ दिया लेकिन थोड़े ही समय में वह भी हजरत महल और उनके बेटे की स्थान स्वयं को इस लड़ाई का नेता बताने लगे उनकी अपनी दलील थी हुआ ये कि अंग्रेजों पर जीत के बाद सिपाहियों ने नगर में लूटपाट करना शुरु कर दिया इसकी कम्पलेन शाह से की गई और बोला गया कि शाह उनके नेता हैं लिहाजा उन्हें ही सिपाहियों को रोकना चाहिए जब सिपाहियों से वार्ता हुई तो उन्होंने शाह को नेता मानने से ही इनकार कर दिया जाने-माने विद्वान सैयद जहीर ने इसका वर्णन करते हुए लिखा है, “उनकी उम्मीदों के एकदम खिलाफ, सेना नेताओं ने राजकुमार बिरजिस कद्र में भरोसा जताया था इस पर शाह ने तीखी प्रतिक्रिया दी उनका बोलना था, वैसे आतंक केवल एक इमाम की सरपरस्ती में ही अंजाम दिया जा सकता है, महत्वपूर्ण है कि मुजाहिदीनों का मजहब भी इमाम वाला ही हो; वहीं, शियाओं के लिए आतंक जरूरी नहीं है, इसलिए बिरजिस कद्र को नेता घोषित करने में आतंक का सबसे महत्वपूर्ण मकसद खो जाता है लिहाजा, अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई धर्मयुद्ध नहीं रहेगा’ शाह का यह मतलब था कि आतंक तभी आतंक रहेगा जब अगुआई उनके हाथों में रहेगी हालांकि बाद में कुछ ऐसी परिस्थितियां बनीं कि शाह अकेले पड़ गए जबकि बेगम हजरत महल हिंदू-मुसलमान सभी को मिला कर अंग्रेजों से लड़ रही थीं

आखिर तक अंग्रेजों से नहीं किया समझौता
बहरहाल, मार्च 58 आते-आते अंग्रेजों ने अपनी ताकत बहुत बढ़ा ली और बेगम को दूसरे में हिस्से जाने को विवश होना पड़ा फिर भी उन्होंने बहराइच और गोंडा के राजाओं के योगदान से अपनी लड़ाई जारी रखी इसी बीच अंग्रेजों के विरोध में क्रांति की अगुआई करने वाली रानी लक्ष्मीबाई शहादत को प्राप्त हो गईं नाना साहेब को नेपाल भागना पड़ा और तात्या टोपे को अंग्रेजों ने फांसी दे दी फिर भी बेगम हजरत महल ने हथियार नहीं डाले बल्कि तकरीबन 50 हजार की सेना के साथ नेपाल से शरण मांगी वहां के शाह के इनकार करने पर अपने साथ लाई सम्पत्ति और जेवर देकर अपने लिए इज्जत की जीवन का सौदा किया इस दौरान अंग्रेज उन्हें पेंशन और माफी की पेशकश देकर हिंदुस्तान आने का प्रस्ताव देते रहे उन्होंने अंग्रेजों की किसी पेशकश को स्वीकार नहीं किया नेपाल में ही रहते हुए 1879 में उनका देहांत हो गया और वहां बनाई गई हिंदुस्तानी मस्जिद के पास ही उन्हें दफनाया दिया गया ये भी रोचक है कि हिंदुस्तान के नाम पर उन्होंने ही इस मस्जिद का निर्माण किया था

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