राष्ट्रीय

विकसित देशों से सीख ले भारत, नौकरियां के मुकाबले उद्योग-धंधों को बढ़ावा देने की जरूरत

भारत एक उद्यमशील और व्यवसाय-उन्मुख देश रहा है. सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य की राज्यसभा में आए यूनानी सम्राट सेल्यूकस के राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक ‘इंडिका’ में भारतीय समाज के सात वर्गों का उल्लेख किया है. उनमें से अधिकतर बुद्धिजीवियों, किसानों, व्यापारियों, कारीगरों और सैनिकों के थे.

बहुत कम लोग नौकर और नौकरीपेशा थे. किसी जॉब को उसकी निर्भरता या दासता के कारण हीन माना जाता था. विश्व अर्थव्यवस्था के इतिहास में आर्थिक सलाहकार एंगस मैडिसन ने भी इसकी पुष्टि की है, लेकिन सदियों की गुलामी के बाद आजाद हुए हिंदुस्तान में स्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं. आज, लोग वित्तीय असुरक्षा वाले व्यावसायिक उद्यम की तुलना में वेतन सुरक्षा वाली जॉब की दासता को बेहतर मानते हैं.

खासकर सरकारी जॉब जो जॉब की सुरक्षा और पेंशन के कारण सबसे अच्छी मानी जाती है. व्यावसायिक उद्यम को आर्थिक असुरक्षा के साथ-साथ फायदा चाहने वाली गतिविधि के रूप में देखा जाता है. इसका एक बड़ा कारण हमारी औपनिवेशिक युग की शिक्षा प्रणाली है जो उद्यमिता, रचनात्मकता और नए कौशल और अनुभव प्रदान करने के बजाय रटने वाली शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करती है. इससे शिक्षित स्नातक उद्यम, श्रम और अनुसंधान से मुक्त हो जाते हैं और लिपिकीय या यांत्रिक कार्य करने में सक्षम हो जाते हैं. उनकी उपयोगिता कम होती जा रही है क्योंकि कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) के विकास के कारण मशीनें कई कार्य अधिक दक्षता और गति से कर सकती हैं. इसीलिए गांधीजी ने अपने ‘नए प्रशिक्षण’ में शिक्षा को श्रम से जोड़ा

शिक्षाविद् अनिल सदगोपाल की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट में बोला गया है कि शिक्षा को काम से जोड़ना बच्चों को समाज से जोड़ने जैसा है. इससे उनमें काम के प्रति सरेंडर पैदा होता है और उपयोगी ज्ञान भी मिलता है. श्रम और बौद्धिकता के इस संतुलन को व्यावहारिक रूप देने के लिए रांची के निकट नेतराहाट में एक प्रायोगिक कॉलेज भी खोला गया, लेकिन इसकी कामयाबी के बावजूद इसका प्रसार पूरे राष्ट्र में नहीं हो सका. नतीजा सबके सामने है

इस बात पर बहस हो सकती है कि 21-30 उम्र वर्ग के पढ़े-लिखे लोगों में बेरोजगारी रेट राष्ट्र में सबसे अधिक है, लेकिन हकीकत यह है कि यूपी में सिपाहियों की करीब 60 हजार नौकरियों के लिए 50 लाख से लेकर अधिक ग्रेजुएट्स ने आवेदन किया और किया. परीक्षा में शामिल होने के लिए ट्रेनों में सीट तक नहीं मिली.

यह भी किसी से छिपा नहीं है कि कैसे लाखों स्नातक मुट्ठी भर सिविल सेवाओं की तैयारी के लिए कोटा और पुणे जैसे शहरों में कोचिंग संस्थानों में कई सालों तक जाते हैं. यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि हिंदुस्तान में हर वर्ष औसतन 1.5 लाख इंजीनियरों समेत करीब एक करोड़ विद्यार्थी ग्रेजुएट बनते हैं. योग्यता सर्वेक्षण के अनुसार, सिर्फ़ 25 फीसदी एमबीए स्नातक, 20 फीसदी इंजीनियर और सिर्फ़ 10 फीसदी सामान्य स्नातक ही रोजगार के योग्य हैं. दूसरों को या तो फिर से प्रशिक्षित करना पड़ता है या उन्हें ऐसा काम दिया जाता है जिसके लिए वे मानसिक रूप से तैयार नहीं होते हैं. काम-धंधों को लेकर सामाजिक सोच इतनी नकारात्मक है कि यदि कोई नेता रोजगार के लिए उनका उदाहरण भी दे तो हंसी की बात होगी

व्यावसायिक उद्यमों और नौकरियों के लिए बाज़ार में प्रतिस्पर्धा भी मुश्किल होती जा रही है. छोटी खेती की परेशानी के कारण 10 करोड़ से अधिक किसान दूसरी नौकरियाँ तलाश रहे हैं. हस्तशिल्प और दस्तकारी की पुश्तैनी परंपरा मशीनीकृत वस्तुओं के सामने या तो टूट गई है या बची नहीं है. इन सभी को रोजगार के लिए प्रशिक्षण, पूंजी और बाजार की आवश्यकता है. इसीलिए हर चुनाव में बेरोजगारी का मामला चर्चा का विषय बनता है इस आम चुनाव में भी कांग्रेस पार्टी ने 30 लाख सरकारी नौकरियां, प्रत्येक स्नातक और डिप्लोमा धारक को प्रति साल एक लाख रुपये का भत्ता और जिला स्तर पर युवाओं को प्रशिक्षण और स्टार्टअप फंड मौजूद कराने की घोषणा को युवा इन्साफ गारंटी का नाम दिया है. बीजेपी समेत अन्य दल आने वाले दिनों में इसी तरह की घोषणाएं करेंगे, लेकिन शिक्षा प्रबंध को व्यवसाय-उन्मुख और शोध-उन्मुख बनाकर परेशानी के बुनियादी निवारण की बात शायद ही कोई करेगा.

सबसे दिलचस्प बात तो ये है कि हिंदुस्तान में रोज़गार का मतलब जॉब ही माना जाता है जब भी कोई पार्टी रोजगार की बात करती है तो केवल सरकारी नौकरियाँ बढ़ाने या भरने की बात करती है. उद्योग-धंधे और काम-धंधे बढ़ाकर रोजगार पैदा करने की बात कम होती है.

यूरोप, अमेरिका और जापान में ऐसा नहीं है वहां सरकारी नौकरियां बढ़ाने की बजाय पार्टियां लागत कम करके बचत करने और बचाए गए पैसे से उद्योग-धंधे को बढ़ावा देकर रोजगार पैदा करने की बात करती हैं. सरकारी नौकरियों को रोजगार के रूप में नहीं बल्कि रोजगार कर के रूप में देखा जाता है क्योंकि उनका वेतन कर के पैसे से दिया जाता है. आज तक कोई भी राष्ट्र नौकरियों के मुद्दे में आगे नहीं बढ़ पाया है उद्योग से ही प्रगति आती है. इसलिए विकसित राष्ट्रों में पार्टियाँ सरकारी खर्च कम करने और उद्योग-धंधों का विस्तार कर आय बढ़ाने की बात करती हैं.

उद्योग और व्यवसाय ही असली रोजगार पैदा कर सकते हैं. वे रोजगार और कर भी प्रदान करते हैं. कांग्रेस पार्टी की 30 लाख सरकारी नौकरियाँ देने की घोषणा को लीजिए मौजूदा समय में केंद्र गवर्नमेंट के कर्मचारियों की संख्या करीब 33 लाख है, जिनकी सैलरी पर 3.25 लाख करोड़ रुपये का खर्च आता है यदि इनमें 30 लाख और जोड़ दिए जाएं तो सैलरी पर खर्च तीन लाख करोड़ और बढ़ जाएगा

इससे पूरी अर्थव्यवस्था चरमरा जायेगी जिससे राष्ट्र कई दशकों तक टिक नहीं पायेगा. यदि यही पैसा उद्योगों को बढ़ावा देने पर खर्च किया जाए तो रोजगार भी बढ़ सकता है और कर राजस्व भी बढ़ सकता है. यह स्थिति आर्थिक रूप से विध्वंसक होगी

ऐसा इसलिए क्योंकि गवर्नमेंट के खजाने में पैसा तेजी से आएगा और रोजगार बढ़ने से अर्थव्यवस्था की स्वास्थ्य में तेजी से सुधार होगा. बिना कार्य भत्ता के लोगों को निःशुल्क बिजली देना और सरकारी नौकरियाँ भरना सामाजिक इन्साफ नहीं बल्कि इसके नाम पर अनुत्पादक व्यय है.

सरकार की जिम्मेदारी श्रम शक्ति को उत्पादक गतिविधियों में निवेश करना है जिससे अर्थव्यवस्था का विकास होगा. वोट के लिए अनुत्पादक फिजूलखर्ची नहीं. मतदाताओं को इसे समझना होगा और दूरदर्शी विचारक बनकर चुनाव में आर्थिक रूप से उत्तरदायी प्रतिनिधियों को अहमियत देनी होगी.

Related Articles

Back to top button