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पत्थरों के बर्तन के लिए फेसम है ये गांव

जिला मुख्यालय से करीब 50 किलोमीटर दूर रैणी तहसील के गांव डोरोली में एक मंदिर ऐसा है, जहां भोजन तैयार करने से लेकर खाने तक पत्थरों के बर्तनों का इस्तेमाल करते हैं हालांकि वर्तमान भौतिकवाद का असर इस परम्परा पर भी पडा है लेकिन मंदिर पर आज भी पत्थरों के बर्तन उपस्थित हैं जिनका इस्तेमाल खाना बनाने से लेकर खाने तक में होता है

रैणी तहसील के डोरोली गांव तीन ओर से पहाडी से घिरा है यहां के काले पत्थर से बने सामान दूर- दराज तक विख्यात रहे हैं करीब तीन दशक पहले तक यहां पत्थरों का सामान बनाने का काम बहुतायत में होता था यहां रहने वाले कारीगर आटा पीसने की चक्की, मसाला पीसने की सिल, बटटा, चकला, आटा गूंदने के लिए काठडी आदि अनेक सामान तैयार कर बेचते थे इस गांव में रहने वाले कारीगर पैतृक कामकाज करते थे धीरे- धीरे यहां पत्थरों का काम करने वाले कारीगर कम होते गए लेकिन, अब भी कई कारीगर पत्थर के बर्तन बनाते हैं

सवामणी में खाते हैं पत्थर के बर्तन में खाना

डोरोली गांव में एक पुराना हनुमान मंदिर है, गांव के लोगों की इस मंदिर के प्रति गहरी आस्था है लोग यहां सवामणी एवं अन्य आयोजन होते रहते हैं इस मंदिर पर चूरमा बाटी दाल तैयार कर हनुमानजी को भोग लगाने की परम्परा रही है यहां भोजन करने के लिए विशेष प्रकार के पत्थर के बर्तन इस्तेमाल में लिए जाते हैं पत्थर का यह बर्तन विशेष प्रकार का होता है, जिसमें दाल, सब्जी, चूरमा या अन्य खाद्य सामग्री रखने के अलग- अलग जगह बनाए जाते हैं

लोग इन्हीं पत्थरों के बर्तनों में चूरमा बाटी दाल का भोजन करते हैं खास बात यह है कि धार्मिक आयोजनों में लोग इन्हें इस्तेमाल में लेने के बाद धोकर और साफ कर यहीं छोड़ जाते हैं इसका फायदा यह होता था कि आयोजनों में लोगों को खाने के लिए बर्तनों का व्यवस्था नहीं करना पडता है इस मंदिर पर धार्मिक आयोजनों में बढोतरी हुई है लेकिन अब भी पत्थरों के बर्तनों में खाने की परंपरा है

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