प्रसिद्व भारतीय विद्वान् देवेन्द्रनाथ ठाकुर की पुण्यतिथि पर जानें इनका जीवन संघर्ष के बारे में…
नेतृत्व क्षमता
पिता के कर्ज का भुगतान उन्होंने बड़ी ही ईमानदारी के साथ किया (जो कि उस समय असाधारण बात थी) और अपनी विद्वता, शालीनता, श्रेष्ठ चरित्र तथा सांस्कृतिक क्रियाकलापों में सहयोग के द्वारा उन्होंने टैगोर परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा को और भी ऊपर उठाया। वे ब्रह्म समाज के प्रमुख सदस्य थे, जिसका 1843 ई। से उन्होंने बड़ी कामयाबी के साथ नेतृत्व किया। 1843 ई। में उन्होंने ‘तत्वबोधिनी पत्रिका’ प्रकाशित की, जिसके माध्यम से उन्होंने देशवासियों को गम्भीर चिन्तन हृदयगत भावों के प्रकाशन के लिए प्रेरित किया। इस मीडिया ने मातृभाषा के विकास तथा विज्ञान एवं धर्मशास्त्र के शोध की जरूरत पर बल दिया और साथ ही तत्कालीन प्रचलित सामाजिक अंधविश्वासों और कुरीतियों का विरोध किया तथा ईसाई मिशनरियों द्वारा किये जाने वाले धर्मपरिवर्तन के खिलाफ सख्त संघर्ष छोड़ दिया।
‘महर्षि’ उपाधि
राजा राममोहन राय की भाँति देवेन्द्रनाथ जी भी चाहते थे कि देशवासी, पाश्चात्य संस्कृति की अच्छाइयों को ग्रहण करके उन्हें भारतीय परम्परा, संस्कृति और धर्म में समाहित करें। वे हिन्दू धर्म को नष्ट करने के नहीं, उसमें सुधार करने के पक्षपाती थे। वे समाज सुधार में ‘धीरे चलो’ की नीति पसन्द करते थे। इसी कारण उनका केशवचन्द्र सेन तथा उग्र समाज सुधार के पक्षपाती ब्राह्मासमाजियों, दोनों से ही मतभेद हो गया। केशवचन्द्र सेन ने अपनी नई संस्था ‘नवविधान’ आरम्भ की। उधर उग्र समाज सुधार के पक्षपाती ब्रह्मा समाजियों ने आगे चलकर अपनी भिन्न भिन्न संस्था ‘साधारण ब्रह्म समाज’ की स्थापना की। देवेन्द्रनाथ जी के उच्च चरित्र तथा आध्यात्मिक ज्ञान के कारण सभी देशवासी उनके प्रति श्रद्धा रेट रखते थे और उन्हें ‘महर्षि’ सम्बोधित करते थे।
शान्ति निकेतन
देवेन्द्रनाथ धर्म के बाद शिक्षा प्रसार में सबसे अधिक रुचि लेते थे। उन्होंने बंगाल के विविध भागों में शिक्षा संस्थाएँ खोलने में सहायता की। उन्होंने 1863 ई। में बोलपुर में एकांतवास के लिए 20 बीघा ज़मीन ख़रीदी और वहाँ गहरी आत्मिक शान्ति अनुभव करने के कारण उसका नाम ‘शान्ति निकेतन’ रख दिया और 1886 ई। में उसे एक ट्रस्ट के सुपुर्द कर दिया। यहीं पर बाद में उनके स्वनामधन्य पुत्र रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विश्वभारती की स्थापना की।
धर्म और शिक्षा प्रसार
देवेन्द्रनाथ जी मुख्य रूप से धर्म सुधारक तथा शिक्षा प्रसार में रुचि तो लेते ही थे, राष्ट्र सुधार के अन्य कार्यों में भी पर्याप्त रुचि लेते थे। 1851 ई। में स्थापित होने वाले ‘ब्रिटिश भारतीय एसोसियेशन’ का सबसे पहला सेक्रेटरी उन्हें ही नियुक्त किया गया था। इस एसोसियेशन का उद्देश्य कानूनी आंदोलन के द्वारा राष्ट्र के प्रशासन में देशवासियों को मुनासिब हिस्सा दिलाना था। 19वीं शताब्दी में जिन मुट्ठी भर शिक्षित हिंदुस्तानियों ने आधुनिक हिंदुस्तान की आधारशिला रखी, उनमें उनका नाम सबसे शीर्ष पर रखा जाएगा।