देवउठनी एकादशी का व्रत माना जाता है काफी महत्वपूर्ण और फलदायक, जानें
देवउठनी एकादशी का व्रत काफी जरूरी और फलदायक माना जाता है। हर वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष तिथि पर देवउठनी एकादशी का व्रत रखा जाता है। मान्यता है इस दिन ईश्वर श्री हरि विष्णु अपनी योग निद्रा से जाग जाते हैं। इस वर्ष 23 नवंबर के दिन देवउठनी एकादशी का व्रत रखा जाएगा। वहीं, एकादशी का व्रत बिना कथा का पाठ किए अधूरा माना जाता है। देवउठनी एकादशी व्रत कथा का पूरी श्रद्धा से पाठ करने पर व्रत के पूर्ण फल की प्राप्ति होती है।
देवउठनी एकादशी व्रत कथा
एक राज्य में सभी लोग देवउठनी एकादशी का व्रत रखते थे। प्रजा तथा नौकर-चाकरों से लेकर पशुओं तक को एकादशी के दिन अन्न नहीं दिया जाता था। एक दिन किसी दूसरे राज्य का एक आदमी राजा के पास आकर कहा महाराज! कृपा करके मुझे जॉब पर रख लें। तब राजा ने उसके सामने एक शर्त रखी कि ठीक है रख लेते हैं। किन्तु रोज तो तुम्हें खाने को सब कुछ मिलेगा पर एकादशी को अन्न नहीं मिलेगा। उस आदमी ने उस समय ‘हां’ कर ली, पर एकादशी के दिन जब उसे फलाहार का सामान दिया गया तो वह राजा के सामने जाकर गिड़गिड़ाने लगा- महाराज! इससे मेरा पेट नहीं भरेगा। मैं भूखा ही मर जाऊंगा। मुझे अन्न दे दो।
राजा ने उसे शर्त की बात याद दिलाई, पर वह अन्न छोड़ने को राजी नहीं हुआ, तब राजा ने उसे आटा-दाल-चावल आदि दिए। वह नित्य की तरह नदी पर पहुंचा और स्नान कर भोजन पकाने लगा। जब भोजन बन गया तो वह ईश्वर को बुलाने लगा- आओ भगवान! भोजन तैयार है। उसके बुलाने पर पीतांबर धारण किए ईश्वर चतुर्भुज रूप में आ पहुंचे और प्रेम से उसके साथ भोजन करने लगे। भोजन करके ईश्वर अंतर्धान हो गए और वह अपने काम पर चला गया।
15 दिन बाद अगली एकादशी को वह राजा से कहने लगा कि महाराज मुझे दुगुना सामान दीजिए। उस दिन तो मैं भूखा ही रह गया। राजा ने कारण पूछा तो उसने कहा कि हमारे साथ ईश्वर भी खाते हैं। इसलिए हम दोनों के लिए ये सामान पूरा नहीं होता। यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह कहा मैं नहीं मान सकता कि ईश्वर तुम्हारे साथ खाते हैं। मैं तो इतना व्रत रखता हूं, पूजा करता हूं, पर ईश्वर ने मुझे कभी दर्शन नहीं दिए।
राजा की बात सुनकर वह कहा महाराज! यदि विश्वास न हो तो साथ चलकर देख लें। राजा एक पेड़ के पीछे छिपकर बैठ गया। उस आदमी ने भोजन बनाया तथा ईश्वर को शाम तक पुकारता रहा, परंतु ईश्वर न आए। अंत में उसने कहा- हे भगवान! यदि आप नहीं आए तो मैं नदी में कूदकर प्राण त्याग दूंगा।
भगवान नहीं आए, तब वह प्राण त्यागने के लिए नदी की तरफ आगे बढ़ा। प्राण त्यागने का उसका दृढ़ इरादा जान शीघ्र ही ईश्वर ने प्रकट होकर उसे रोक लिया और साथ बैठकर भोजन करने लगे। खा-पीकर वे उसे अपने विमान में बिठाकर अपने धाम ले गए। यह देख राजा ने सोचा कि व्रत-उपवास से तब तक कोई लाभ नहीं होता, जब तक मन सही न हो। इससे राजा को ज्ञान मिला। वह भी मन से व्रत-उपवास करने लगा और अंत में स्वर्ग को प्राप्त हुआ।