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‘मडगांव एक्सप्रेस’ की सक्सेस से खुश है कुणाल खेमू, कहा…

 एक्टर से राइटर – डायरेक्टर बने कुणाल खेमू इन दिनों फिल्म ‘मडगांव एक्सप्रेस’ की कामयाबी से बहुत खुश हैं. कुणाल कहते हैं कि फिल्म अभी भी थियेटर में चल रही है और उसे दर्शकों का प्यार मिल रहा है. मैं रोज सुबह उठ कर ईश्वर को धन्यवाद देता हूं. इससे जीवन में और भी बेहतर काम करने की प्रेरणा मिलती है.

दैनिक मीडिया से खास वार्ता के दौरान कुणाल ने बोला – ‘फिल्में पैशन से बनती हैं, लेकिन इंडस्ट्री में आजकल फिल्में नहीं, बल्कि प्रोजेक्ट्स बन रहे हैं. स्टार्स को ध्यान में रखकर कहानियां लिखी जा रही हैं, जबकि कहानी को ध्यान में रखकर ऐसे स्टार की कास्टिंग करनी चाहिए जो कहानी को जस्टिफाई कर सके.

आपके डेब्यू डायरेक्शन फिल्म ‘मडगांव एक्सप्रेस’ की खूब चर्चा अभी भी हो रही है. कैसा फील कर रहे हैं?

मैं इसे शब्दों में बयां नहीं कर सकता. मुझे बहुत ही खुशी हो रही है. कोई भी आदमी किसी भी काम में मेहनत करता है तो यही आशा करता है कि उसके काम को सराहा जाए. और, उसी समय सराहा जाए. कई बार ऐसा होता है कि पुराने काम की सराहना बाद में मिलती है. फिल्म अभी भी थियेटर में है,उसे प्यार मिल रहा है. मैं रोज सुबह उठ कर ईश्वर को धन्यवाद देता हूं. इससे जीवन में और भी बेहतर काम करने की प्रेरणा मिलती है.

इस कॉन्सेप्ट पर फिल्म बनाने का आइडिया कहां से आया था ?

ऐसी बहुत सारी कहानियां दिमाग में हैं. जो मैंने लिखकर रखी है. एक अभिनेता के जीवन में कोई टाइम टेबल और शेड्यूल तो होता नहीं है. जब आप काम कर रहे हैं, तो हो सकता है कि आप वर्ष भर बिजी हैं. काम नहीं है तो आप खाली बैठे रहते हैं. ऐसे समय में कुछ ना कुछ नयी चीजें करने की प्रयास करता रहता था. जीवन में अभिनय के अतिरिक्त भी बहुत सारी चीजें हैं.

कभी फोटोग्राफी तो कभी ट्रैवलिंग तो कभी गिटार उठाकर म्यूजिक कर लिया. कहानियां दिमाग में थी तो लिखना प्रारम्भ कर दिया. लेकिन कॉमेडी ऐसी डिस हैं, जिसे आप सरलता से नहीं परोस सकते हैं. जब दोस्तों को नरेट करता था तो उनको अच्छी लगती थी फिर लिखना प्रारम्भ किया. इसकी प्रेरणा कहीं न कहीं अपनी जीवन से ही मिलती है.

जब आप इस फिल्म को लिख रहे थे तो सबसे बड़ा चैलेंज क्या था ?

मुझे लगता है कि सारे चैलेंज हमारे अंदर ही होते हैं. सारे रोड ब्लॉक पहले हम अपने लिए क्रिएट करते हैं. जब हम चलना प्रारम्भ करते हैं तो रास्ते बनते चले जाते हैं. बहुत सारी ऐसी चीजें थी जो मुझे नहीं पता कि कैसे करना है. कई वर्षों तक इस लज्जा में रहा है कि लोगों को कैसे दिखाऊं कि मैंने लिखा है. लोग यही बोलते कि तुमने कब लिखना प्रारम्भ किया. पहले इस लज्जा से निकलना था.

उस समय तो डायरेक्शन के बारे में सोच ही नहीं था. लेकिन जब प्रोड्यूसर ने स्क्रिप्ट पढ़कर बोला कि तुम्हें डायरेक्शन करना चाहिए. मुझे लगा कि लोग ऐसे मौके की तलाश में लोग रहते हैं, मुझे मिल रहा है तो क्यों नहीं. डर भी था कि डायरेक्शन की जिम्मेदारी उठा पाऊंगा कि नहीं. लेकिन जब आप आरंभ करते हैं, आप की टीम बन जाती है तो धीरे – धीरे कॉन्फिडेंस आ जाता है.

जब आपने पहली बार फरहान अख्तर को स्क्रिप्ट नरेट की, तब क्या सोच रहे थे ?

मैं यही सोच रहा था कि यदि कोई आदमी नरेशन के लिए दो – ढाई घंटे का समय दे रहा है और मैं कहानी सुना रहा हूं तो उसे बोर न होने दूं. मेरे अंदर अभिनय का टैलेंट है तो मैं बोर तो ना करूं. मैंने उसी अंदाज में स्क्रिप्ट पढ़ी, जिस अंदाज मे लिखा था. फरहान ने काफी इन्जॉय किया और फिल्म प्रोड्यूस करने के लिए तैयार हो गए.

फिल्म के कास्टिंग प्रोसेस के बारे में बताएं ?

मैंने प्रतीक गांधी की सीरीज ‘स्कैम 1992’ देखी थी, मुझे पता था कि वो अभिनेता अच्छा है. कई बार इंडस्ट्री में आपको टाइप कास्ट कर दिया जाता है. प्रतीक इस फिल्म और भूमिका के लिए फिट थे. मैं चाहता था कि वह भूमिका एक गुजराती अभिनेता करे. इसलिए मैंने प्रतीक को चुना. दिव्येंदु और अविनाश तिवारी को मै जनता  था कि बहुत अच्छे अभिनेता हैं. दिव्येंदु कॉमेडी कर चुका था,लेकिन इस तरह की कॉमेडी नहीं की थी.

फिल्म में आपका कैमियों बहुत कमाल का था, वह आइडिया कहां से आया ?

जब मुझे बोला गया कि फिल्म मुझे डायरेक्ट करनी है और मैंने डायरेक्शन के बारे में सोचा. तब मेरा यह डिसीजन था कि फिल्म में अभिनय नहीं करनी है. राइटिंग और डायरेक्शन ही बहुत बड़ी जिम्मेदारी की बात थी. मैंने सोच लिया था कि इसमे अभिनय नहीं करूंगा.

फिल्म में जिस कैमियो की आप बात कर रहे हैं, पहले वह ओरिजिनल स्क्रिप्ट में नहीं था. बाद में मुझे महसूस हुआ कि कहानी में एक ऐसे भूमिका की आवश्यकता है. पहले उस भूमिका के लिए किसी और को सोच रहा था, लेकिन जब कोई अभिनेता नहीं समझ में आया तो स्वयं ही कर लिया .

सीक्वल की भी डिमांड हो रही हैं, उसके लिए क्या करेंगे ?

यह मेरे लिए बहुत बड़ी जिम्मेदारी की बात होगी. आरंभ तो स्क्रिप्ट की राइटिंग से होगी. इस फिल्म से लोगों ने भले ही बड़ी आशा ना की हो, लेकिन सीक्वल से अधिक उम्मीदें लेकर आएंगे. जिस पर खरा ही उतरना है. मैं नहीं चाहूंगा की, किसी भी वजह से फिल्म देखने का मजा किरकिरा हो जाए.

ऐसा कोई कंप्लीमेंट, जो दिल को छूं गया हो ?

बहुत सारे आए. कई बार तो मैं इमोशनल हो गया. प्रशंसा आपको बहुत ही कठिन से मिलती है. ऐसे – ऐसे लोगों के टेलीफोन आए जिनकी मैंने आशा ही नहीं की थी. सोशल मीडिया पर भी लोगों ने फिल्म की खूब प्रशंसा की, क्रिटिकल रिव्यू भी बहुत अच्छे मिलें. मेरे अंदर डर यही था कि फिल्म तो बना लूंगा.

एक्टर के तौर पर सभी का बहुत प्यार मिला है. लेकिन डायरेक्शन में कोई धांधली ना हो जाए और लोग बोलना प्रारम्भ कर दें कि ऐक्टिंग तो अच्छी चल रही थी. डायरेक्शन में क्या कर दिया.

सोहा अली खान आपकी पहली ऑडियंस रही हैं, उनका क्या कंप्लीमेंट रहा है ?

उसकी प्रशंसा को कभी – कभी मैं हल्के में ले लेता हूं. परिवार वालों के साथ अक्सर ऐसा होता है. वह भी डरे होते हैं कि अभी हमने कुछ बोल दिया तो गड़बड़ है. सोहा और मेरी मां बहुत बड़ी क्रिटिक्स हैं. उनको लगता है कि अच्छा है,लेकिन इससे और बेहतर हो सकता है. जब सोहा ने पहली बार फिल्म देखी तो उनको अच्छी लगी. जब भी फिल्म का प्रीव्यू हुआ तो हर बार मजे से देखा तब मुझे समझ में आया कि उनको फिल्म अच्छी लग रही है. वह मेरी सबसे बड़ी स्पोर्टर रही हैं. जितना वह मुझे समझती हैं, शायद ही कोई समझता होगा.

कलयुग से लेकर अभी तक आप के बॉडी लैंग्वेज में अंदर से खुशी दिखाई देती है, संतूर बॉयज की जो आप की फिटनेस है, उसे कैसे मेंटेन करते हैं ?

इसमें मेरा कोई लेना देना नहीं हैं. यह जेनेटिक है जो मेरे पेरेंट्स से मुझमें आए हैं. जिस तरह का हमारा प्रोफेशन है, लाइफ में थोड़ा फिल्टर लाना महत्वपूर्ण है.

आपके बारे में जो सबसे इंटरेस्टिंग बात लगी वह ये कि आपके दादा जी को पद्मश्री और साहित्य अकादमी अवॉर्ड मिला है, लेखन की जो आप में विधा है वो आपके जींस में है ?

मुझे भी ऐसा ही लगता है,क्योंकि मैंने राइटिंग मैंने कहीं से नहीं सीखी . दादा जी ने काफी लंबे समय तक काम किया और उनका नाम सबको नहीं पता है. जो साहित्य में रुचि रखते हैं उनको दादा जी के बारे में पता है. मुझे बहुत अच्छा लगता है कि जब कोई कहता है कि मोती लाल खेमू का ग्रैंडसन है .

इंडस्ट्री की ऐसी कौन सी बात जिसे आप चेंज करना चाहेंगे ?

मुझे लगता है कि मैथ हटाना पड़ेगा. फिल्मों में जो मैथ लग जाता है वो गड़बड़ है. लोग फिल्में नहीं बल्कि प्रोजेक्ट बना रहे हैं. इंडस्ट्री में ज्यादातर लोग अभिनेता बनने आते हैं. कुछ लोग अभिनेता ना बनकर डायरेक्टर बन जाते हैं . प्रोड्यूसर बनने कम लोग ही आते हैं. जबकि प्रोड्यूसर बनने अधिक महत्वपूर्ण है.

जब तक प्रोड्यूसर्स की संख्या अधिक नहीं होगी तब तक अधिक फिल्में नहीं बनेगी. फिल्में अधिक बनेगी तभी नए टैलेंट को मौका मिलेगा. ओटीटी में आरंभ हुई थी. नए टैलेंट को मौका मिल रहा था. अब वहां भी बड़े लोगों को ही मौके मिल रहे हैं. अब ओटीटी में भी ऐसी बातें होने लगी कि पहले जैसा बिजनेस नहीं रहा है.

क्या आप को ऐसा लगता है कि एक अभिनेता के तौर पर इंडस्ट्री अभी तक आपको यूज नहीं कर पाई है ?

मैं आपके इस बात से पूरी तरह से सहमत हूं. पर्सनल तौर पर यह बात मुझे हमेशा लगती है. मैंने बाहर से भी यही बातें सुनी है, लोग वर्षों से कह रहे हैं. यदि मुझे और दर्शकों को ऐसी बात लग रही है तो लगता है कि यदि मौके नहीं मिल रहे हैं तो स्वयं के लिए मौके क्रिएट करना चाहिए.

जब मैं फिल्म प्रमोट कर रहा था, मुझे मां की बात याद आई. जब बचपन में जब मां खाना बनाती थी और खाना नहीं अच्छा लगता था तो मां कहती थी कि यदि खाना पसंद नहीं आ रहा है तो सीख लो और खाना बना लो. वह सीख कहीं – कहीं अंदर रह गई है. आपको जो मौके मिल रहे हैं,अगर आप उससे खुश नहीं हैं तो अपने लिए नए मौके क्रिएट कीजिए.

जब आप अभिनेता के तौर पर काम कर रहे थे, तो उस समय बाजार का भी बहुत दबाव था, लेकिन अब ओटीटी के आने से काफी परिवर्तन आ गया है और अब दर्शक भी बदल गए हैं, क्या बोलना चाहेंगे ?

मैं हमेशा यह मानता हूं कि हीरो को विलेन बनाना बहुत सरल है. फिल्मों में हम अक्सर यह देखते हैं. लेकिन रियल लाइफ में ऐसा एकदम भी नहीं होता है कि सुबह उठते ही कोई विलेन वाला काम करना चाहता हो. लेकिन परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि हमें वैसे काम करने पड़ते हैं. फिल्में पैशन से बनती हैं, लेकिन हम लोग प्रोजेक्ट बना रहे हैं.

पेपर पर प्रोजेक्ट ठीक लगता है, लेकिन कहानी ठीक ढंग से नहीं लिखी जाती है. स्टार को ध्यान में रखकर कहानी लिखी जा रही हैं. जबकि कहानी को ध्यान में रखकर ऐसे स्टार की कास्टिंग करनी चाहिए जो कहानी को जस्टिफाई कर सके.

 

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