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पढ़िए, दादासाहेब तोर्णे के इतिहास रचने के बावजूद इतिहास से गायब रहने की कहानी

भारतीय सिनेमा के इतिहास में वर्ष 1913 में रिलीज हुई फिल्म राजा हरिश्चंद्र को राष्ट्र की पहली फिल्म बोला जाता है, जिसे दादासाहेब फाल्के ने बनाया था. दादासाहेब फाल्के को फिल्मों का जनक (फादर ऑफ भारतीय सिनेमा) बोला गया, हालांकि इसके एक वर्ष पहले 1912 में बनी एक फिल्म पहले ही ये इतिहास रच चुकी थी. उस फिल्म को बनाया था दादासाहेब तोर्णे ने. फिल्म पहले बनी जरूर, लेकिन इतिहास में इसे न पहली फिल्म माना गया, न बनाने वाले दादासाहेब तोर्णे को फिल्मों का जनक. वजह केवल इतनी रही कि उन्होंने अपनी फिल्म में विदेशियों की सहायता ली थी. उन्हें क्रेडिट दिलाने की पहल पहली फिल्म आने के 100 वर्ष बाद प्रारम्भ की गई, लेकिन नतीजा उनके पक्ष में नहीं रहा. पहली फिल्म बनाने के साथ-साथ दादासाहेब तोर्णे हिंदुस्तान के पहले एडिटर, डायरेक्टर, एग्जीबिटर और मूवी कैमरा कंपनी के मालिक भी हैं. उनकी सहायता से ही हिंदुस्तान में फिल्में बनाने वालों को बढ़ावा मिला था.

 

 

कम उम्र में उठा पिता का साया, संबंधियों ने नहीं दिया आसरा

13 अप्रैल 1890 को दादासाहेब तोर्णे का जन्म आज से ठीक 134 वर्ष पहले मुंबई के करीब बसे मालवान गांव में हुआ था. महज 3 वर्ष के थे, जब अचानक उनके पिता का मृत्यु हो गया. पिता की मृत्यु के बाद संबंधियों ने उन्हें, उनकी मां और दादा जी को घर से निकाल दिया. न रहने का ठिकाना था, न कमाई का कोई जरिया. ऐसे में उनका परिवार दर-दर ठोकरें खाता रहा.

भुखमरी की हालात में उनका पूरा परिवार काम की तलाश करते हुए बॉम्बे (अब मुंबई) आ पहुंचा. 10 वर्ष के दादासाहेब तोर्णे को मुंबई की ग्रीव्स कॉटन ग्रीन इलेक्ट्रिक कंपनी में काम मिल गया, जहां वो मशीनें सुधारने का काम करने लगे.

विदेशी फिल्में देखकर आया हिंदुस्तान में फिल्म बनाने का विचार

मशीनों का काम करते हुए दादासाहेब तोर्णे को मशीनों में रुचि जागी और उन्होंने बारीकी से काम सीखना प्रारम्भ कर दिया. काम से फुरसत पाकर दादासाहेब तोर्णे अकसर श्रीपद सिनेमाघर कंपनी के नाटक देखने जाया करते थे. ऐसे में उनकी सिनेमाघर वालों से अच्छी जान पहचान हो गई. श्रीपद सिनेमाघर कंपनी में उन दिनों कभी-कभी विदेश से लाई गईं फिल्में दिखाई जाती थीं.

साल 1910 के आसपास की बात है, एक दिन दादासाहेब तोर्णे विदेशी फिल्म देखने पहुंचे थे. उन्होंने फिल्म देखी और इस गहन चिंतन में पड़ गए कि आखिर इसे कैसे बनाया गया होगा. पहले ही मशीनों की गहरी परख रखने वाले 21-22 वर्ष के दादासाहेब तोर्णे ने स्वयं ही अपनी फिल्म बनाने का निर्णय कर लिया.

पैसों की आवश्यकता पड़ी तो दोस्त ने की मदद, विदेश से मंगवाया कैमरा-रील

दादासाहेब तोर्णे एक इलेक्ट्रिक कंपनी में हल्की काम करते थे, जिससे मिलने वाली हल्की तनख्वाह उनका फिल्म बनाने का सपना पूरा करने के लिए काफी नहीं थी. जब आर्थिक सहायता की आवश्यकता पड़ी, तो दादासाहेब तोर्णे ने अपने दोस्त मिस्टर नाना साहेब चित्रे से सहायता मांगी, जो सिनेमाघर कंपनी के फायनेंसर भी थे. नाना साहेब चित्रे विदेश से फिल्में मंगवाते थे और हिंदुस्तान में दिखाते थे. उन्हें दादासाहेब तोर्णे का आइडिया पसंद आया और वो पैसे देने के लिए राजी हो गए.

1000 रुपए के खर्च में हिंदुस्तान पहुंचा पहला कैमरा और रील

दादासाहेब तोर्णे ने पैसों का बंदोबस्त होते ही लंदन की एक कंपनी से कैमरा, रील समेत फिल्म बनाने का हर महत्वपूर्ण इक्विपमेंट खरीद लिया, जिसमें करीब 1000 रुपए का खर्चा आया. कंपनी ने कैमरे के साथ एक ऑपरेटर भी भेजा था, जिसने दादासाहेब तोर्णे को वीडियो कैमरा चलाना सिखाया. दादासाहेब तोर्णे हिंदुस्तान के पहले शख्स थे, जिन्हें कैमरा हैंडल करने की तकनीक आती थी.

इसके बाद उन्होंने नाना साहेब चित्रे और दोस्त रामराव कृतिकर के साथ मिलकर माइथोलॉजिकल प्ले श्री पुंडलीक लिखा, ये प्ले माइथोलॉजिकल कैरेक्टर पुंडलीक पर आधारित था.

कलाकारों की फीस के लिए उधार लिए पैसे

स्क्रिप्ट तैयार होने के बाद दादासाहेब तोर्णे ने सिनेमाघर ग्रुप के कलाकारों को फीस देकर फिल्म के लिए शूटिंग करने के लिए राजी कर लिया. फिल्म की मशीनरी खरीदने में उन्होंने सारे पैसे खर्च कर दिए थे, ऐसे में उन्होंने कलाकारों की फीस के साथ-साथ ठहरने और खाने की प्रबंध करवाने के लिए कुछ करीबियों से पैसे उधार लिए थे.

मुंबई के ग्रांट रोड के सिनेमाघर में हुई थी पहली फिल्म की शूटिंग

शूटिंग के लिए उन्होंने मुंबई के ग्रांट रोड स्थित एक सिनेमाघर को चुना. शूटिंग के समय कोई गड़बड़ न हो, इसलिए उन्होंने विदेश से जॉनसन नाम के कैमरामैन को बुलाया था, जिसने रिकॉर्डिंग में दादासाहेब तोर्णे की सहायता की थी. कैमरा एक ही स्थान सेट कर 22 मिनट के पूरे प्ले की रिकॉर्डिंग की गई. ये वो दौर था जब तकनीकों की कमी के चलते क्लोज-अप शॉट, पैन और टिल्ट शॉट का विकल्प नहीं हुआ करता था.

जब दादासाहेब तोर्णे ने वो रिकॉर्डिंग देखी तो एक ही कैमरा एंगल से शूट हुई फिल्म उन्हें पसंद नहीं आई. उन्होंने कैमरामैन जॉनसन से सलाह-मशवरा कर भिन्न-भिन्न एंगल से फिल्म शूट करने का निर्णय किया. वो एक एगंल से एक रील में फिल्म शूट करते थे फिर एंगल बदलकर दूसरी स्थान नयी रील का इस्तेमाल करते थे. जब शूटिंग पूरी हुई तो उन्होंने सारी रील्स को सीक्वेंस में लगाकर फिल्म को पूरा किया.

शूटिंग के बाद प्रोसेस होने के लिए लंदन भेजी गई थी फिल्म की रील

श्री पुंडलीक फिल्म शूट होने के बाद दादासाहेब तोर्णे ने 1500 फीट लंबी रील प्रोसेस होने के लिए लंदन भेजी, क्योंकि उस दौर में हिंदुस्तान में रील प्रोसेस करने की कोई कंपनी ही नहीं थी.

भारत के पहले प्रमोटर हैं दादासाहेब तोर्णे, अखबार में छपा था फिल्म का प्रमोशनल ऐड

फिल्म श्री पुंडलीक 22 मिनट की फीचर फिल्म थी. जो हिंदुस्तान में बनी पहली फिल्म है. फिल्म को जब मुंबई के कोरोनेशन सिनेमा में दिखाया गया, तो देखने वालों की भीड़ लगने लगी. इस फिल्म की जानकारी लोगों तक पहुंचाने के लिए दादासाहेब तोर्णे ने कोरोनेशन सिनेमा की सहायता से 1912 में मीडिया अखबार में फिल्म श्री पुंडलिक का एक प्रमोशनल ऐड छपवाया था.

उस इश्तिहार में लिखा गया था- पुंडलीक-पुंडलीक, एक पॉपुलर हिंदू ड्रामा, मुंबई शहर की आधी हिंदू जनसंख्या ने फिल्म देख ली है और हम चाहते हैं कि बची हुई आधी हिंदू जनसंख्या भी इस फिल्म को जरूर देखे.

टाइम्स ऑफ इण्डिया में छपा फिल्म का प्रमोशनल एड.

अखबार में छपे इश्तिहार से फिल्म को लाभ मिला और लोग लगातार इस फिल्म को देखने पहुंचने लगे. भीड़ इतनी थी कि फिल्म 2 हफ्तों तक कोरोनेशन सिनेमाहॉल में लगी रही थी.

भारत के पहले डिस्ट्रीब्यूटर भी हैं दादासाहेब तोर्णे

पहली फिल्म श्री पुंडलिक बनाने के बाद दादासाहेब तोर्णे को उनकी कंपनी ( ग्रीव्स कॉटन इलेक्ट्रिक) ने उनका ट्रांसफर कराची कर दिया. कराची में रहते हुए उनकी मुलाकात बाबूराव पाई नाम के एक शख्स से हुई, जो फिल्मों में रुचि रखता था. दोनों ने मिलकर कराची में एक छोटा सा ऑफिस प्रारम्भ किया, जहां वो विदेश से फिल्में मंगवाकर दिखाते थे. समय के साथ उन्होंने कराची, कोल्हापुर समेत कई शहरों में फिल्में डिस्ट्रीब्यूट करना प्रारम्भ कर दिया. इस तरह दादासाहेब तोर्णे हिंदुस्तान के पहले फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर बने.

दादासाहेब तोर्णे ने बॉम्बे में प्रारम्भ की मूवी कैमरा कंपनी

दादासाहेब इलेक्ट्रिक कंपनी में काम करते थे, लेकिन जब फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन से उनकी कमाई बढ़ने लगी, तो उन्होंने जॉब छोड़ दी. पहले विश्व युद्ध के समय दादासाहेब तोर्णे की अमेरिकन्स से अच्छी दोस्ती हो गई. उन्होंने अपने कॉन्टैक्ट्स की सहायता से हिंदुस्तान में मूवी कैमरा की कंपनी प्रारम्भ कर दी.

दादासाहेब तोर्णे की कंपनी से हिंदुस्तान में बढ़ी फिल्ममेकिंग

दादासाहेब फाल्के के बाद हिंदुस्तान में कई भिन्न-भिन्न लोग फिल्में बना रहे थे, लेकिन हमेशा फिल्म बनाने के लिए कैमरा और अन्य इक्विपमेंट्स को विदेश से ही मंगवाया जाता था. हिंदुस्तान में मूवी कैमरा कंपनी खुलने से कई लोगों को फिल्में बनाने में सहायता मिली और फिल्ममेकिंग को हिंदुस्तान में बढ़ावा मिलने लगा. फिल्म बनाने के लिए हर कोई उस दौर में दादासाहेब तोर्णे से कैमरा खरीदा करता था. फिल्में बनाने का चलन आया तो उनकी कंपनी भी मुनाफे में रही.

1929 में प्रारम्भ की फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी, करोड़ों में हुई कमाई

मूवी कैमरा कंपनी के साथ-साथ दादासाहेब तोर्णे ने कराची के अपने दोस्त बाबूराव पाई के साथ मिलकर बॉम्बे में भी एक फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन करने वाली फेमस पिक्चर कंपनी प्रारम्भ कर दी. ये उस दौर की इकलौती ऑफिशियल डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी थी, जो भारतीय फिल्में डिस्ट्रीब्यूट करती थी. कंपनी राष्ट्र भर में बनने वाली फिल्मों को थिएटरों तक पहुंचाती थी, टिकट सेलिंग से कंपनी की करोड़ों में कमाई होती थी.

फिल्मों की वैल्यू समझते थे दादासाहेब तोर्णे, बदलते दौर में बोलती फिल्में बनवाईं

दादासाहेब तोर्णे सिनेमा प्रेमी होने के साथ-साथ सिनेमा के महत्व को भी भली–भाँति जानते थे. उनका मानना था कि इंडस्ट्री तब ही आगे बढ़ती रहेगी, जब इसे नयी तकनीकों के साथ अपडेट किया जाएगा. जब हॉलीवुड में बोलती फिल्में बनने लगीं तो वो हिंदी फिल्मों की बजाय हॉलीवुड की बोलती फिल्मों को लोगों को दिखाने लगे.

जब भारतीय साइलेंट फिल्मों से अधिक भीड़ विदेश की साउंड फिल्मों में आने लगी, तो दादा साहेब तोर्णे ने लंदन जाकर साउंड रिकॉर्डिंग की ट्रेनिंग ली और मशीनों के साथ हिंदुस्तान लौट आए. दादासाहेब तोर्णे फिल्में बनाना छोड़ चुके थे, ऐसे में उन्होंने अपने दोस्त आर्देशिर ईरानी को हिंदुस्तान की पहली बोलती फिल्म बनाने के लिए राजी कर लिया और उन्हें साउंड रिकॉर्डिंग की मशीनें दे दीं.

2 महीने में तैयार हुई थी राष्ट्र की पहली साउंड फिल्म आलम आरा

दादासाहेब तोर्णे को डर था कि साउंड तकनीक का पता लगते ही हर कोई साउंड फिल्में बनाने लगेगा. ऐसे में उन्होंने 2 महीने में गुपचुप ढंग से फिल्म आलम आरा बनाई.

भारत की पहली बोलती फिल्म आलम आरा ने इतिहास रच डाला. भारी संख्या में लोग बोलती फिल्म देखने पहुंचे और आर्देशिर इरानी का नाम हिंदी सिनेमा के इतिहास में दर्ज हुआ. हालांकि, इस समय भी दादासाहेब तोर्णे ने क्रेडिट नहीं लिया. आगे साउंड फिल्मों को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने विदेश से साउंड रिकॉर्डर मंगवाए और उस दौर के हर बड़े स्टूडियो प्रभात, रंजीत, वाडिया में सप्लाई किए.

अपना प्रोडक्शन हाउस प्रारम्भ कर बनाईं 17 फिल्में

दादासाहेब तोरणे ने मनोरंजन की बजाय सामाजिक मुद्दों पर फिल्में बनाने के लिए पुणे में अपना प्रोडक्शन हाउस सरस्वती सिनेटोन प्रारम्भ किया. प्रोडक्शन की पहली फिल्म शाम सुंदर जबरदस्त हिट रही. आगे उन्होंने आउत घटाकेछा समेत हिंदी, मराठी भाषा की करीब 17 फिल्में बनाईं.

फिल्म की कॉपीज जलीं, स्टूडियो बिका

बदलते दौर के साथ दूसरे प्रोडक्शन की फिल्में हिट होने लगीं और दादासाहेब तोरणे ने फिल्में बनाना कम कर दीं. उनकी फिल्मों की केवल एक कॉपी हुआ करती थी, जो हर शहरों में घुमाकर दिखाया जाता था, लेकिन अधिक फिल्मों की रील्स में आग लगने से वो समाप्त हो गईं.

आर्थिक तंगी हुई तो बेचना पड़ा स्टूडियो

पैसों की तंगी होने पर 1944 में दादासाहेब तोरणे ने अपना स्टूडियो अहमद नाम के एक शख्स को बेच दिया. उस शख्स ने ये स्टूडियो चकन ऑइल मिल को बेचा और स्वयं बंटवारे में पाक चला गया. आज उसी स्थान कुमार पेसिफिक मॉल है.

बंटवारे और दंगों के बीच मिला धोखा

1947 में भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के समय कई मुसलमान पाक जा रहे थे. इसी दौरान दादा का एक करीबी मुसलमान दोस्त उनके सारे महंगे इक्विपमेंट चुराकर पाक भाग गया. कैमरा और फिल्ममेकिंग इक्विपमेंट से उन्हें इस कदर लगाव था कि उनसे ये सदमा बर्दाश्त नहीं हो सका. उन्हें हार्टअटैक आया और इसके बाद उन्होंने हमेशा के लिए फिल्में बनाना छोड़ दिया. उन्होंने रिटायरमेंट के बाद स्वयं को फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोगों से भी दूर कर लिया और शिवाजी नगर स्थित घर में अकेले रहने लगे. 19 जनवरी 1960 को दादासाहेब तोर्णे का नींद में ही मृत्यु हो गया.

100 वर्ष बाद प्रारम्भ हुई क्रेडिट की जंग

साल 2013 को दादासाहेब तोर्णे के बेटे अनिल तोर्णे, बहू मंगला तोर्णे और मोशन पिक्चर प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन के एसोसिएट विकास पाटिल ने बॉम्बे उच्च न्यायालय में एक पिटिशन फाइल कर उन्हें क्रेडिट दिए जाने की मांग की थी. उनकी पिटिशन को ये कहते हुए खारिज कर दिया गया कि वर्ष 1912 में बनी फिल्म श्री पुंडलीक एक प्ले की रिकॉर्डिंग थी, ऐसे में उसे पहली फीचर फिल्म का दर्जा नहीं दिया जा सकता है. साथ ही ये भी बोला गया कि उस फिल्म को प्रोसेस के लिए विदेश भेजा गया था और उसका कैमरामैन भी विदेशी था. जबकि दादासाहेब फाल्के की एक वर्ष बाद रिलीज हुई फिल्म राजा हरिश्चंद्र को हिंदुस्तान में ही पूरी तरह बनाया गया था.

वर्ल्ड रिकॉर्ड में दादासाहेब तोरणे को बोला गया हिंदी सिनेमा का जनक

भले ही हिंदी सिनेमा के इतिहास में दादासाहेब फाल्के को हिंदी सिनेमा का जनक बोला गया है, हालांकि गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में ये रिकॉर्ड दादासाहेब तोरणे के नाम पर है. ए पिक्चोरियल हिस्ट्री ऑफ भारतीय सिनेमा और मराठी सिनेमा की पुस्तकों में भी इन्हें ही जनक माना गया है.

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